यह कमाल पिछले साढ़े छह साल से पूरे देश में हो रहा है। कहीं भी और किसी भी किस्म का आंदोलन होता है तो उसकी साख बिगाडऩे का प्रयास शुरू हो जाता है। भाजपा पूरी व्यवस्थित तरीके से यह काम करती है। उसका आईटी सेल इन आंदोलनों से जुड़े लोगों को बदनाम करती है। उनके बारे में झूठे-सच्चे किस्से प्रसारित करती है और हैरानी की बात है कि भाजपा के बड़े नेता उसे दोहराने लगते हैं। साथ-साथ भारतीय मीडिया शामिल बाजा बन जाता है। साढ़े छह साल पहले किसी आंदोलन के बारे में ऐसा नहीं होता था। दिल्ली में भ्रष्टाचार को लेकर या निर्भया कांड के समय इतने बड़े आंदोलन हुए, लेकिन कहीं यह नहीं कहा गया है कि ये टुकड़े टुकड़े गिरोह है या देशद्रोहियों का आंदोलन है। किसान पहले भी आंदोलन करने दिल्ली आते थे और पिछले कई सालों में उन्होंने मुंबई में भी बड़े प्रदर्शन किए पर उन्हें कभी खालिस्तानी नहीं कहा गया। अब यह सब कुछ कहा जा रहा है। दिल्ली में छात्रों का आंदोलन हुआ। पहले रोहित वेमुला की खुदकुशी को लेकर हुए, फिर जेएनयू में फीस बढ़ोतरी को लेकर आंदोलन हुआ तो उसे टुकड़े टुकड़े गैंग का आंदोलन कहा गया। यह सरासर बेईमानी थी और झूठ था पर पूरे आंदोलन और उससे जुड़े लोगों को बदनाम करने के लिए उसे टुकड़े टुकड़े गैंग का नाम दिया गया।
छात्रों के आंदोलन के लिए भाजपा के तमाम नेता इस जुमले का प्रयोग करते हैं। ऐसे सारे नेता भी जो 1974 में गुजरात के और बिहार के छात्र आंदोलन से ही नेता बने हैं। इसके बाद देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं के आंदोलन को नसल आंदोलन का नाम दे दिया गया और देश के सबसे बेहतरीन एक दर्जन सामाजिक कार्यकर्ता इस समय अलग अलग जेलों में बंद हैं। अब किसान केंद्रीय कानूनों का विरोध कर रहे हैं तो उनको खालिस्तानी आतंकवादी बताया जा रह है। आखिर सरकार और साारूढ़ दल को आंदोलनों से इतना भय या खतरा किस बात का दिख रहा है, जो वह इनकी साख बिगाडऩे के लिए इतनी मेहनत कर रही है? नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन के प्रति बेरहमी दिखाने और आंदोलन को बदनाम करने के लिए प्रचार अभियान छेडऩे वाली केंद्र सरकार के पास या इस बात कोई जवाब है कि किसानों के लिए बनाई गई योजनाओं को पूरा करने में उसने वैसी ही तत्परता यों नहीं दिखाई है? इस हाल में अगर किसान सरकार की नीयत पर शक करते हैं, तो या इसका दोष उन्हें दिया जाना चाहिए?
इस बात पर गौर कीजिए। एपीएमसी मंडियों की पहुंच से दूर कई किसानों, खास कर छोटे एवं सीमांत कृषकों को लाभ पहुंचाने के लिए ग्रामीण हाटों को कृषि बाजार में परिवर्तित करने की योजना खुद सरकार ने बनाई थी। लेकिन वह अब भी ठंडे बस्ते में पड़ी हुई है। एक वेबसाइट ने इस बारे में आरटीआई के जरिए सूचना हासिल की। मोदी सरकार ने देश के 22,000 हाटों को ग्रामीण कृषि बाजार बनाना का लक्ष्य रखा था। लेकिन अब तक एक भी हाट को कृषि बाजार में परिवर्तित या विकसित नहीं किया जा सका है। यह किसानों को बेहतर कृषि बाजार देने के केंद्र एवं राज्य सरकारों के दावों पर सवालिया निशान खड़े करता है। इसमें से 10,000 ग्रामीण कृषि बाजारों में मार्केटिंग इन्फ्रास्ट्रचर के विकास के लिए सरकार ने नाबार्ड के अधीन 2,000 करोड़ रुपये के एएमआईएफ को मंजूरी दी थी। इस फंड का उद्देश्य राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को सस्ती दर (करीब छह फीसदी) पर लोन देना है, ताकि वे इस पैसे का इस्तेमाल कर अपने यहां के हाटों को कृषि बाजार में परिवर्तित कर सकें। इस फंड को प्राप्त करने के लिए अभी तक एक भी राज्य ने प्रस्ताव नहीं भेजा है। जबकि 31 मार्च 2020 तक राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के भेजे प्रस्तावों और उनके सत्यापन के बाद इस योजना के तहत फंड दिया जाने वाला था। तो किसानों का हित साधने को सरकार के उत्साह की असली तस्वीर यह है।