अर से चर्चा आरंभ हो गई है। पत्र-पत्रिकाओं, वेब पोर्टल और समाचार चैनलों पर विमर्श चल रहा है कि क्या इस बार लीजो जोश पेल्लिस्सेरी की मलयालम फिल्म ‘जल्लीकट्टू’ भारत के लिए ऑस्कर ले आएगी? हर साल फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया भारत की विभिन्न भाषाओं में बनी तमाम फिल्मों में से किसी एक को ऑस्कर के लिए चुनता है। हर साल देश में 1,000 से अधिक फिल्में बनती हैं। उनमें से कुछ चर्चित और लोकप्रिय फिल्मों में से यह एक फिल्म चुनी जाती है। कई बार इस चुनाव को लेकर भी विवाद हो जाते हैं। बेहतरीन फिल्में रह जाती हैं और मामूली चलता-पुर्जा फिल्में चुन ली जाती हैं। शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ को चयन समिति ने नजरअंदाज कर दिया था। पिछले साल ‘तुम्बाड़’ जैसी बेहतरीन फिल्म छोड़कर ‘गली बॉय’ जैसी लोकप्रिय फिल्म ऑस्कर के लिए भेजी गई। चयन प्रक्रिया के अंतर्विरोध और नामांकन की अंतर्निहित बाधाओं के बावजूद फिल्म भेजे जाने के साथ ही देश के आम दर्शक आस लगा बैठते हैं। ऑस्कर ने ग्लोबलाइजेशन के पिछले तीन दशकों में इंटरनेशनल प्रतिष्ठा हासिल की है। विश्व में सर्वाधिक देखे जाने वाले इस पुरस्कार समारोह के प्रति जिज्ञासा और लालसा अमेरिका के आक्रामक प्रचार की वजह से है। यह दुनियाभर की फिल्मों की श्रेष्ठता नापने की कसौटी बन गया है, जबकि मुख्य रूप से यह अंग्रेजी भाषा का अमेरिकी अवॉर्ड ही है। अमेरिकी फिल्मों के इंटरनेशनल बाजार के दर्शक (ग्राहक) अपनी पसंद-नापसंद की फिल्मों के ऑस्कर परिणाम के लिए जिज्ञासु रहते हैं। इन दिनों भारतीय टीवी चैनल भी इसे प्रसारित करते हैं और भारत के ऑस्करप्रेमी दर्शक सुबह-सवेरे जागकर भक्ति भाव से इसे देखते और प्रमुदित होते हैं। परिणाम आने के पहले से सोशल मीडिया पर अनुमानों की बौछार शुरू हो जाती है।
इसके पीछे हॉलिवुड और अमेरिकी फिल्मों के प्रति भारतीय दर्शकों की स्थायी हीनग्रंथि सक्रिय रहती है, जिसे ‘ऑस्कर ग्रंथि’ भी कह सकते हैं। इंटरनैशनल ख्याति हासिल कर चुकी सारी चीजें हमें भाती हैं और हम उनकी लालसा भी रखते हैं। हम चाहते हैं कि हमारी फिल्मों को भी यह प्रमाण और पहचान मिले। ऑस्कर और अमेरिकी मीडिया के प्रचार ने श्रेष्ठता के मानदंड अपने परिप्रेक्ष्य से तय कर दिए हैं। भारत के फिल्मप्रेमी इसके प्रभाव में देश की भाषाओं की श्रेष्ठ फिल्मों को भी कमतर और तुच्छ समझते हैं। इस क्रम में हम भारतीय भाषाओं में बनी श्रेष्ठ फिल्मों से अनभिज्ञ रहते हुए हॉलिवुड की फिल्मों के विशेषज्ञ बनते जा रहे हैं। गौरतलब है कि ऑस्कर की सामान्य कैटेगरी में भारतीय फिल्मों को प्रवेश नहीं मिल पाता। मुख्य रूप से श्रेष्ठ इंटरनेशनल फीचर फिल्म (पूर्वनाम- विदेशी भाषा की श्रेष्ठ फिल्म) श्रेणी में ही भारतीय फिल्में जाती हैं। इसमें दुनिया भर से गैर-अंग्रेजी संवादों वाली फिल्में भेजी जाती हैं। ऑस्कर की कोई समिति फिल्में आमंत्रित नहीं करती, न ही उन्हें खोजती है। सभी देशों को फिल्में खुद ही भेजनी होती हैं। ऑस्कर अवॉर्ड की शुरुआत 1929 में हुई, लेकिन विदेशी फिल्मों की विशेष कैटिगरी 1956 में तय की गई। 1957 में भारत की महबूब खान निर्देशित ‘मदर इंडिया’ नामांकित हुई थी। उसके बाद से हर साल भारतीय फिल्में भेजी जाती रही हैं लेकिन नामांकन सूची में पहुंचने में केवल मीरा नायर निर्देशित ‘सलाम बॉम्बे’ (1988) और आशुतोष गोवारिकर निर्देशित ‘लगान’ (2001) सफल हो पाईं। ये फिल्में भी नामांकन से आगे नहीं बढ़ सकीं। यह सवाल भारतीय फिल्मों के प्रेमी दर्शकों को मथता रहता है कि भारतीय फिल्में आखिर पिछड़ यों जाती हैं, जबकि गुणवाा की दृष्टि से उनमें कोई कमी नहीं रहती?
सबसे पहले तो हमें इस ‘ऑस्कर ग्रंथि’ से निकल जाना चाहिए और इसे एक सामान्य प्रतियोगिता से अधिक तरजीह नहीं देनी चाहिए। भारतीय फिल्मों के प्रचार, प्रसार और प्रभाव के लिए कान, बर्लिन, टोरंटो, वेनिस, बुशान आदि फिल्म फेस्टिवल अधिक उपयोगी हैं। इन फिल्म समारोहों में आए दुनिया भर के प्रतिनिधि भारतीय फिल्में देखते हैं और उन्हें अपने देशों के समारोहों में आमंत्रित करते हैं। उन पर लिखते और उनकी चर्चा भी करते हैं। ऑस्कर जैसे शुद्ध अमेरिकी अवॉर्ड की एक विशेष कैटेगरी में पुरस्कार पाने के लिए लालायित भारतीय मन को यह समझना चाहिए कि वहां नामांकन सूची तक पहुंचने के लिए भी अनेक बाधाओं को पार करना पड़ता है। कोई निर्णायक फिल्म पर अपनी राय तभी देगा जब वह इसे देखेगा। इस काम के लिए अपनी फिल्म को अधिक से अधिक निर्णायकों की नजर में लाना जरूरी होता है। भारतीय निर्माता-निर्देशक इतना पैसा न लगाने के कारण भी इसमें चूक जाते हैं। एम एस सथ्यू की फिल्म ‘गरम हवा’ जब ऑस्कर के लिए भेजी गई थी तो वह स्वयं अर्थाभाव के चलते नहीं जा सके थे। अपनी फिल्म लेकर अमेरिका में भटकते रहने की पीड़ा से तो कई फिल्मकार गुजरे हैं। ऑस्कर नामांकन के लिए जरूरी है कि भेजी गई फिल्म अमेरिका, खासकर लॉस एंजिलिस काउंटी में प्रदर्शित हुई हो। उसके न्यूनतम शो की संख्या भी निर्धारित है।
दरअसल, इस कैटिगरी के लिए ऑस्कर ने 35 पृष्ठों की नियमावली बना रखी है, जिसकी सारी शर्तें पूरी करने के बाद निर्माता-निर्देशक को अमेरिका जाकर लॉबीइंग करनी पड़ती है। शिष्ट और मार्केटिंग की भाषा में इसे ‘ऑस्कर पुश’ कहते हैं। इसमें कम से कम तीन करोड़ की रकम लग जाती है। भारतीय फिल्मों के नामांकन तक नहीं पहुंचने की एक बड़ी वजह है ऑस्कर पुश नहीं हो पाना। अगर जूरी मेंबरों तक फिल्में पहुंच भी गईं तो जरूरी नहीं कि उनकी सौंदर्य दृष्टि और रसग्रहण की प्रक्रिया भारतीय फिल्मों के अनुकूल हो। मुमकिन है कि उन्होंने पहले कोई भारतीय फिल्म देखी भी ना हो। भारतीय फिल्मों के लिए ऑस्कर सर्टिफिकेट पाने की कोशिश में लगे श्रम और धन को अगर देश के ही विविध क्षेत्रों में उनके प्रचार-प्रसार के काम में लगाया जाए तो एक सिने संस्कृति विकसित होगी। भारतीय दर्शकों की रुचि उन्नत होगी और वे बेहतरीन फिल्मों को सराहने के काबिल होंगे। विदेशों के प्रतिष्ठित और नए फिल्म समारोहों में भारतीय फिल्में सरकारी सहयोग से भेजी जाएं और पूरी दुनिया में एक जागरूकता फैलाई जाए तो भविष्य में भारत अपनी इस सॉफ्ट पावर का ज्यादा सार्थक लाभ उठा पाएगा। कहने की जरूरत नहीं कि इस साल ‘जल्लीकट्टू’ नामांकन सूची तक पहुंचे और पुरस्कार भी हासिल करे तो यह निश्चित ही खुशी की बात होगी।
अजय ब्रह्मात्ज
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)