इस महामारी में अपने छात्रों को सही शिक्षा देने के लिए केवल शिक्षक ही कड़ी मेहनत नहीं कर रहे हैं, बल्कि गृहणियां, युवा, रिटायर्ड पेशेवर भी संघर्ष कर रहे हैं और गरीबों में शिक्षा को जिंदा रखने के लिए नए आइडिया लेकर आ रहे हैं। ये रहे कुछ उदाहरण।
पहली कहानी: कोलकाता के विभिन्न विश्वविद्यालयों के पूर्व और मौजूदा छात्रों के समूह ने ‘पृथ्बीर पाठशाला’ (बंगाली में दुनिया की स्कूल) नाम की पहल शुरू की है। जब प्रकृति निर्दयी हो गई तो ये साथ आए। फिर वह 2015 का नेपाल भूकंप हो या 2018 की केरल की बाढ़ और ऐसी ढेरों अन्य आपदाएं।
महामारी के समय में आवश्यक सामग्री बांटने के अलावा उनका ध्यान उन बच्चों को पढ़ाने पर भी गया जो रोजाना कई किलोमीटर चलकर स्कूल जाते थे। कोलकाता की 21 ऐसी पाठशालाओं में 103 वॉलंटियर 10 से 16 वर्ष उम्र के 810 छात्रों को पढ़ा रहे हैं। इन छात्रों में प्रवासी मजदूरों, दैनिक कामगारों, झोपड़-पट्टी में रहने वालों, चाय बागानों में काम करने वालों और जनजातीय समुदायों के बच्चे शामिल हैं। अगर आप मुझसे पूछेंगे कि पृथ्बीर पाठशाला क्या है?
क्या क्लास रोज लगती है या सिर्फ वीकेंड पर? क्या ये किसी स्कूल बोर्ड से जुड़ने की इच्छा रखते हैं? या यह परोपकार के लिए कोई अस्थायी व्यवस्था है? क्या यह कोविड-19 के बाद भी जारी रहेंगी? और फंडिंग का क्या? इन सवालों के कोई तय जवाब नहीं हैं। लेकिन अभी वे बस शिक्षा को जिंदा रखे हुए हैं।दूसरी कहानी: ‘धारावी डायरी’ एक परियोजना है जो धारावी की युवतियों को एक ओपन-सोर्स टूल ‘एमआईटी एप इंवर्टर’ का इस्तेमाल सिखाती है, जिसकी मदद से वे अपनी रोजमर्रा की समस्याओं के लिए मोबाइल एप बना सकती हैं।
पहले धारावी की टेक गर्ल्स (उन्हें इस नाम से जाना जाता है) जमीनी स्तर पर एक छोटे से कमरे में काम करती थीं। यहां तीन-तीन के समूहों में एक लैपटॉप साझा होता था और सभी जमीन पर बैठकर फिल्मकार नवनीत रंजन के निर्देश सुनती थीं, जिन्होंने यह प्रोजेक्ट शुरू किया था।
नवनीत 2014 में सैन फ्रांसिस्को से भारत आ गए थे और मुंबई में एशिया के सबसे बड़े स्लम धारावी में एक फिल्म बनाने के बाद सामुदायिक विकास परियोजना शुरू करने के लिए प्रेरित हुए। इनका ‘विमन फाइटबैक’ नाम का एक एप गूगल प्लेस्टोर पर है। आज और लोगों तक पहुंचने के लिए वे शहर के कॉलेजों के छात्रों को आमंत्रित करते हैं, जो अपना ज्ञान उनसे साझा करते हैं।
तीसरी कहानी: जब हैदराबाद के ‘पैशनेट फाउंडेशन’ के युवाओं ने शुरुआत की तो वे यह स्थिति देख चौंक गए कि अंग्रेसी कैसे सिखाई जा रही है। न सिर्फ पाठ्यक्रम में कमियां थीं, छात्रों के पास पुरानी हो चुकी उन पाठ्यपुस्तकों के अलावा यह भाषा सीखने का कोई जरिया नहीं था, जिनमें पांचवीं कक्षा तक में नर्सरी की कविताएं सिखाई जा रही थीं। उन्हें लगा कि छात्रों की अंग्रेजी का स्तर सुधारने के लिए कुछ करना चाहिए।
इस तरह ‘टीच फॉर चेंज’ की शुरुआत हुई, जिसका उद्देश्य ऐसे समर्पित वॉलंटियर्स का समूह तैयार करना था, जिनमें सरकारी स्कूलों में पढ़ाने का जुनून हो। अब वे ऐसे रुटीन की योजना बना रहे हैं जहां गृहणियों से लेकर रिटायर्ड लोग तक आकर अपनी पसंद का विषय पढ़ा सकें। इसके लिए एक ही योग्यता चाहिए, ‘पढ़ाने के लिए जुनून’।
फंडा यह है कि शिक्षण सिर्फ शिक्षकों तक सीमित नहीं है, यह सभी जुनूनी लोगों के लिए खुला है, फिर वे गृहणियां हों, कॉलेज जाने वाले युवा या रिटायर्ड पेशेवर।
हुनर से कमाओ: डिक्शनरी में ‘टैलेंट’ (हुनर) शद का अर्थ है किसी व्यक्ति की स्वाभाविक प्रतिभा। यह हमारा कौशल या स्वाभाविक क्षमता है। हम सभी में ये होती हैं, लेकिन हम पहचान नहीं पाते कि वे क्या हैं। जब युवा मुझसे पूछते हैं कि वे अपना हुनर कैसे पहचानें तो मैं कहता हूं कि वे अपने आस-पास के लोगों से उनका ईमानदार मूल्यांकन करने को कहें। कभी-कभी ये हुनर हमारे सामने ही होते हैं, लेकिन हम देख नहीं पाते।
हममें से ज्यादातर उन्हें तब नहीं पहचान पाते, जब हम युवा होते हैं। जैसे हमारे पाश्र्व गायक एसपी बालासुब्रमण्यम, जिन्हें प्यार से बालू भी कहते थे। बालू का सपना अपने पिता की महत्वाकांक्षा पूरी कर इंजीनियर बनना और सरकारी नौकरी पाना था। उन्होंने कभी गायक बनने का नहीं सोचा था और न ही उन्होंने बचपन से इसकी कोई ट्रेनिंग ली थी। उनका कॉलेज के दिनों में गायकी के प्रति झुकाव हुआ। आंध्रप्रदेश के अनंतपुर से इंजीनियरिंग करने के दौरान बीमारी की वजह से उन्हें एक साल के लिए पढ़ाई छोडऩी पड़ी। तब उन्हें विभिन्न गायन प्रतियोगिताओं में भाग लेने का समय मिला। एक बार उन्हें आंध्रप्रदेश में नीबुओं के लिए प्रसिद्ध गुडुर के कालिदास कलानिकेतन में एस जानकी के सामने गाने का मौका मिला, जो तब प्रसिद्ध गायिका बन चुकी थीं और बाद में ‘नाइटेंगेल ऑफ साउथ इंडिया’ के नाम से जानी गईं।
चूंकि वे आंध्र से ही थीं, इसलिए उन्हें युवा हुनरमंदों को जज करने के लिए बुलाया गया था। बालू को दूसरा पुरस्कार मिला। किसी कारण जानकी को लगा कि बालू का प्रदर्शन पहला पुरस्कार जीतने वाले से बेहतर था और इसलिए उन्होंने बालू से फिल्मों में गाने को कहा। बालू हंस पड़े और बोले कि उन्होंने संगीत का कोई प्रशिक्षण नहीं लिया है। लेकिन जानकी ने उनका यह कहकर उत्साह बढ़ाया कि उन्होंने भी बहुत कम सीखा है, लेकिन इसने उन्हें बतौर गायक कॅरिअर बनाने से नहीं रोका। बालू ने फिर चेन्नई से इंजीनियरिंग की आगे की पढ़ाई की, जहां वे कई म्यूजिक डायरेक्टर से मिले और सभी जगह खारिज कर दिए गए। बालू ने गायकी छोडऩे का फैसला लिया। लेकिन उनके रूममेट मुरली से चुपचाप बालू का नाम आंध्र सोशल कल्चरल एसोसिएशन की प्रतियोगिता में लिखवा दिया। प्रतियोगिता का नियम यह था कि संगीत और बोल, दोनों मूल होने चाहिए।
उनके दोस्त ने मजबूर किया कि वे इसमें भाग लें, जहां शीर्ष संगीतकारों को बतौर मुख्य अतिथि बुलाया गया था। चूंकि गायकों को अल्फाबेट के क्रम में चुना गया, इसलिए सबसे पहले बालू का नाम आ गया। उन्होंने प्रस्तुति दी और दर्शकों में चुपचाप बैठ गए। तब एक जज का असिस्टेंट उनके पास आया और पूछा कि क्या वे फिल्म के लिए गाएंगे? बालू उसकी ओर देखकर आंखों ही आंखों में बोले, ‘यार क्यों मजाक कर रहे हो!’ एक हफ्ते बाद उन्हें संगीत निर्देशक एसपी कोडंडापानी के सामने ऑडिशन के लिए बुलाया गया, जिन्होंने उन्हें फिर रिजेक्ट कर दिया।
तब तक बालू को लगने लगा कि इंजीनियरिंग ही उनका पेट भरेगी। लगभग 18 महीने बाद, जब बालू अपने कैंपस में थे, 1966 में कोडंडापानी उन्हें खोजते हुए पहुंचे। बहुत बाद में पूरे भारत ने उनके साथ साजन फिल्म का गाना ‘देखा है पहली बार’ गाया। 16 भाषाओं में गाए गए करीब 40 हजार गानों के साथ बाकी इतिहास है। इस शुक्रवार उन्होंने अंतिम सांस ली। फंडा यह है कि जब आप एसपी बालासुब्रमण्यम की तरह अपने हुनर से कमाते हैं तो वह काम या नौकरी जैसा नहीं लगता, बल्कि जिंदगी जीने जैसा लगता है।
एन. रघुरामन
(लेखक मैनेजमेंट गुरु हैं ये उनके निजी विचार हैं)