पाकिस्तान में पीपल्स पार्टी के नेता बिलावल भुट्टो ने लगभग सभी प्रमुख विरोधी दलों की बैठक बुलाई, जिसमें पाकिस्तानी फौज की कड़ी आलोचना की गई। पाकिस्तानी फौज की ऐसी खुले-आम आलोचना करना तो पाकिस्तान में देशद्रोह-जैसा अपराध माना जाता है। नवाज़ शरीफ ने अब इस फौज को नया नाम दे दिया है। उसे नई उपाधि दे दी है। फौज को अब तक पाकिस्तान में और उसके बाहर भी ‘सरकार के भीतर सरकार’ कहा जाता था लेकिन मियां नवाज़ ने कहा है कि वह ‘सरकार के ऊपर सरकार’ है। यह सत्य है। पाकिस्तान में अयूब खान, याह्या खान, जिया-उल-हक और मुशर्रफ ने अपना फौजी शासन कई वर्षों तक चलाया ही लेकिन जब गैर-फौजी नेता लोग सत्तारुढ़ रहे, तब भी असली ताकत फौज के पास ही रहती चली आई है। अब तो यह माना जाता है कि इमरान खान को भी जबर्दस्ती जिताकर फौज ने ही पाकिस्तान पर लादा है।
फौज ही के इशारे पर अदालतें जुल्फिकार अली भुट्टो, नवाज शरीफ और गिलानी जैसे नेताओं के पीछे पड़ती रही हैं। ये ही अदालतें क्या कभी पाकिस्तान के बड़े फौजियों पर हाथ डालने की हिम्मत करती हैं ? पाकिस्तान के सेनापति कमर जावेद बाजवा की अकूत संपत्तियों के ब्यौरे रोज़ उजागर हो रहे हैं लेकिन उन्हें कोई छू भी नहीं सकता। मियां नवाज ने कहा है कि विपक्ष की लड़ाई इमरान खान से नहीं है, बल्कि उस फौज से है, जिसने इमरान को गद्दी पर थोप रखा है। यहां असली सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान के नेता लोग फौज से लड़ पाएंगे ? ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि फौज थोड़ी पीछे खिसक जाए।
सामने दिखना बंद कर दे, जैसा कि 1971 के बाद हुआ था या जैसा कि कुछ हद तक आजकल चल रहा है लेकिन फौज का शिकंजा पाकिस्तानियों के मन और धन पर इतना मजबूत है कि उसे कमजोर करना इन नेताओं के बस में नहीं है। पाकिस्तान का चरित्र कुछ ऐसा ढल गया है कि फौजी वर्चस्व के बिना वह जिंदा भी नहीं रह सकता। यदि पंजाबी प्रभुत्ववाली फौज कमजोर हो जाए तो पख्तूनिस्तान और बलूचिस्तान टूटकर अलग हो जाएंगे। सिंध का भी कुछ भरोसा नहीं। 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद पाकिस्तानी जनता के मन में भारत-भय इतना गहरा पैठ गया है कि उसका एकमात्र मरहम फौज ही है। फौज है तो कश्मीर है। फौज के बिना कश्मीर मुद्दा ही नहीं रह जाएगा। इसके अलावा फौज ने करोड़ों-अरबों रु. के आर्थिक व्यापारिक संस्थान खड़े कर रखे हैं। जब तक राष्ट्र के रुप में पाकिस्तान का मूल चरित्र नहीं बदलेगा, वहां फौज का वर्चस्व बना रहेगा।
डा.वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)