इतिहास के दूसरे अध्याय का आरंभिक चरण

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विश्व राजनीति ने चौंकानेवाली दो खबरें देखीं। पहली, 40 सालों बाद अमेरिकी स्वास्थ्य मंत्री एलेक्स, ताइवान गए। अमेरिकी राष्ट्रपति का दोस्ती का पैगाम लेकर। 1979 में चीन का समर्थन करते हुए अमेरिका ने ताइवान के साथ आधिकारिक रिश्ता तोड़ा था। दूसरी, अमेरिका, ताइवान को 66, एफ-16 लड़ाकू विमान बेचेगा। यह पृष्ठभूमि बनी कैसे? भारत-चीन युद्ध (1962) पर ‘लंदन टाइम्स’ के दिल्ली संवाददाता, नेवली मैक्सवेल ने (1970) किताब लिखी, ‘इंडियाज़ चाइना वॉर’। भारत को हमलावर साबित किया। चीन के विकास पर उनकी कुछ और पुस्तकें हैं। उसी अनुपात में, भारत के खिलाफ लेखन भी। इस विषय के दुनिया के तटस्थ अध्येताओं ने पाया कि पुस्तक में मैक्सवेल की पक्षधरता साफ है। खुद मैक्सवेल ने अपना असल चेहरा दुनिया को दिखाया। 60 के दशक में ‘द टाइम्स’ (लंदन) के लिए कई रिपोर्टें लिखी, ‘भारत का बिखरता लोकतंत्र’। कहा, ‘भारतीय जल्द ही चौथे और अंतिम आम चुनाव में भाग लेंगे। लोकतांत्रिक ढांचे में भारत को विकसित करने का महान प्रयोग विफल हो चुका है। भारत में तुरंत ही सैन्य शासन होगा।’ मैक्सवेल के गलत तथ्यों ने दुनिया व भारत के भविष्य पर क्या असर डाला? पश्चिम और एशिया के बौद्धिकों-विद्वानों और नीति निर्माताओं पर क्या प्रभाव पड़ा? चीनी नेताओं ने मैक्सवेल की पक्षधरता को शिखर सम्मान दिया।

किताब 70 में छपी, 1971 में चीन के एक सरकारी बैंक्वेट में मैक्सवेल बुलाए गए। वहां चाउएन लाई (जिन्हें पंडित नेहरू ने शिखर का सम्मान दिया था) ने मैक्सवेल से कहा ‘आपकी किताब ने सच की सेवा की है, चीन को इससे लाभ मिला है’। बात बढ़ी चीन को महाशक्ति बनाने में इस पुस्तक की भूमिका से। किसिंगर ने अपनी किताब ‘ऑन चाइना’ में लिखा कि वह इससे प्रभावित हुए। चीन को सही माना। 2014 के इंटरव्यू में मैक्सवेल ने कहा, ‘1971 में जब मेरी यह पुस्तक अमेरिका में छपी, तो किसिंगर ने मुझे बताया कि इससे चीन पर उनकी सोच बदल गई। उन्होंने यह पुस्तक राष्ट्रपति निक्सन को दी। ये सब बातें अब ‘ऑन रिकार्ड’ हैं, निक्सन-किसिंगर-माओ के बीच 1971-72 में हुई बातचीत में। किसिंगर बीजिंग में थे, तो उन्होंने चाउएन लाई से कहा कि मैक्सवेल की किताब पढ़कर मेरा मानस बना कि चीनी लोगों से कारोबार हो सकता है।’ अमेरिका ने ताइवान से रिश्ता तोड़ा, चीन से राजनयिक संबंध बनाया। इस तरह पहली बार चीन का दरवाजा दुनिया से कारोबार के लिए खुला। एक बार अमेरिकी द्वार खुला, तो जापान समेत पश्चिम व दुनिया के देशों ने चीन का स्वागत किया। फिर अंतरराष्ट्रीय व्यापार व मैन्युफैक्चरिंग के बल पर चीन आर्थिक ताकत बना। चीन की आज संपन्नता का राज, भारत के बारे में झूठ पर आधारित यह किताब भी है।

2014 के आसपास मैक्सवेल ने हंडरसन ब्रुक्स-भगत रिपोर्ट की पीडीएफ फाइल इंटरनेट पर जारी की। चीनी दैनिक ‘साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट’ ने हेडलाइन छापा कि मैक्सवेल ने उन दस्तावेजों को सार्वजनिक किया, जो साबित करते हैं कि 1962 में भारत ने चीन को उकसाया। यह रिपोर्ट भारत सरकार का गोपनीय दस्तावेज है। इसके आंशिक पक्ष को उठाकर मैक्सवेल ने झूठ का पहाड़ बनाया। ‘सौ झूठ से सच’ बनाने में मैक्सवेल की पुस्तक और चीन की रणनीति कहां तक गई? सुनंदा राय ने लिखा है कि 1976 में सिंगापुर के निर्माता ली क्यान पहली बार चीन गए। चीन के प्रधानमंत्री हुआ फेंग ने ली को मैक्सवेल की किताब ‘इंडियाज़ चाइना वॉर’ भेंट की। ली ने तत्काल तोहफा लौटाया, यह कहते हुए कि यह एकपक्षीय है। पर मैक्सवेल के गलत तथ्यों पर, चीन दुनिया में छवि निखारता रहा। अब अमेरिका को भूल का भान हो रहा है, तो ताइवान से रिश्ते बन रहे हैं। पर 50 वर्षों में इस किताब ने भारत की छवि का जो नुकसान किया, वह कीमत देश अब भी चुका रहा है।

सरदार पणिक्कर (चीन में भारत के राजदूत 1948-52) की पहल पर पंडित जी ने तिब्बत को चीन का हिस्सा बताया। पंचशील (1954) करार के बाद नारा लगा कि पंडित जी के जीवन में भारत-चीन युद्ध नहीं होगा। समझौते में एक बिंदु था, कोई एक-दूसरे पर हमला नहीं करेगा। एशिया-अफ्रीका बांडुग सम्मेलन में (1955) भारत ने चीन के चाउएन लाई को स्थापित किया। यूएन में चीन को विश्वमंच पर लाने में हमारी भूमिका अग्रणी रही। पर मैक्सवेल की किताब का झूठ, शायद ही हमारे किसी प्रगतिशील इतिहासकार ने कभी उजागर किया? इस झूठ का बिंदुवार खुलासा तो विदेशी लेखकों ने किया या भारत के सैन्य इतिहासकारों ने। हम इस भ्रम में जीये कि हम विश्वनायक हैं। वह राग देश के उधार मानस के बौद्धिक आज भी जी रहे हैं। कहावत है, इतिहास दोहराता है। अब अमेरिका-ताइवान रिश्तों का नया चक्र शुरू हो रहा है। भारत-ताइवान संबंधों में भी सुधार के संकेत हैं। क्या यह इतिहास के दूसरे अध्याय का आरंभिक चरण है?

हरिवंश
(लेखक बिहार से राज्यसभा सांसद हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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