टांगाटोली सरकार का अल्पायु योग

0
279

हिंदुत्व के कट्टर अनुचर जानते हुए भी मानेंगे नहीं और राजनीतिक पंडितों को यह मानने में अभी थोड़ी दिक्क़त होगी कि मध्यप्रदेश-प्रसंग ने भारतीय जनता पार्टी के बुनियादी मर्म को भीतर तक हिला दिया है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भागवत-पुराण के पन्ने बेतरह छितरा दिए हैं। कुर्सी-ख़ोर इधर-उधर आते-जाते हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं है। उनकी दुश्चरित्र गाथा पर कितने ही ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। मगर मध्यप्रदेश में जो हुआ है, वह जनतंत्र के जनाज़े का तो सब से बदसूरत आयाम है ही, वह भाजपा के चाल, चरित्र और चेहरे पर अब तक का सब से निकृष्ट छींटा भी है। एक सरकार गिराने और एक सरकार बनाने के लिए नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भाजपा का स्ट्रिपटीज़ देख कर सियासत के बड़े-बड़े अत्यानंदाओं के नयनों में भी लाज का पानी भर आया। एक सरकार को गिराने में तात्कालिक परिस्थितियों को हर तरह की हवा दे कर अपने पक्ष में कर लेना अब शायद उतना बड़ा नैतिक प्रश्न रह भी नहीं गया है। लेकिन अपनी सरकार बनाने के लिए भाजपा-सरकार का एक तिहाई से ज़्यादा कांग्रेसीकरण कर लेने की मजबूरी तो भोपाल के सिंहासन पर बैठे शिवराज सिंह चौहान को भी साल रही होगी।

मध्यप्रदेश की हुक़ूमत के ऐसे मुखिया की आंतरिक वेदना की कल्पना कीजिए, जिसे ज़िंदगी के इस पड़ाव पर आ कर अपने तमाम संघी संस्कारों की बलि देनी पड़ी हो, अपने सर्वहारा सिद्धांतों को तिलांजलि दे ‘खम्मा घणी’ मुद्रा अपनाना पड़ी हो और गंगा की जगह बाईस धाराओं वाले पतनाले को अपनी जटाओं से गुज़ारना पड़ा हो! सियासी घोड़ों की ख़रीद-फ़रोख़्त की यह घिनौनी पारी खेलने के लिए, मैं जानता हूं कि, शिवराज को अपने मन पर कितने पत्थर रखने पड़े होंगे। मैं शिवराज को ज़्यादा नहीं जानता, लेकिन इतना ज़रूर जानता हूं कि वे प्रमोदमहाजनी, अमरसिंही और अमितशाही परंपरा के नहीं थे। मगर पंद्रह बरस सत्ता की विषकन्या की सोहबत में कौन-सा चंदन नंदन नहीं हो जाएगा? सो, आज के शिवराज को देख कर मुझे उन पर दया आती है। ‘मोशा-युग’ में किस की इतनी हिम्मत है कि भाजपा को दीनदयाल उपाध्याय के आदर्श-मार्ग पर ले जाने की बात करे? शिवराज को एक ऐसी सरकार का मुखिया होने का कलंक अपनी पेशानी पर लगवाना पड़ा, जिसके 33 मंत्रियों में से 14 तो अभी विधानसभा के सदस्य ही नहीं हैं। ठीक है कि तकनीकी सूराख़ बिना विधायक बने भी उन्हें छह महीने मंत्री बने रहने का हक़ देते हैं, मगर आख़िर थोड़ी लाज-शरम का पालन तो कोठों तक में होता है!

राजनीति के रंगमहलों को क्या हम एकदम नंगिस्तान बन जाने दें? लोकतंत्र में अपने-अपने लिए वल्लभ भवन की रियासतों के बंटवारे का ऐसा नासपीटा अंदाज़ तो भोपाल के ताल ने पहले कभी नहीं देखा था। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जो किया, सो, किया। अगर उन्हें लग रहा था कि वे कांग्रेस में खाई के मुहाने तक पीछे धकेल दिए गए हैं तो उन्हें कुछ भी करने का हक़ था। लेकिन क्या सचमुच कांग्रेस में वे इतना किनारे कर दिए गए थे कि सरकार गिराने के लिए भाजपा तक की गोद में गिर पड़ें? मुझे नहीं लगता कि ऐसा था। राहुल गांधी किस वज़ह से अपने बाल-सखा सरीखे ज्योतिरादित्य का साथ देने से परहेज़ कर गए, मुझे नहीं मालूम। लेकिन किसी का भी सामान्य विवेक इतना ज़रूर मानेगा कि इसके पीछे कोई तो ठीक-ठाक कारण रहा होगा। बावजूद इस सब के मेरे मन में ज्योतिरादित्य के लिए ज़्यादा सम्मान तब रहता, जब वे धर्म और संस्कृति की अपनी बेहद भोथरी कूंची से सारे भारत को एक ही रंग में रंगने निकले नरेंद्र भाई मोदी के पिछलग्गू बनने के बजाय मध्यप्रदेश में अपना एक अलग राजनीतिक दल बना लेते। आख़िर राजनीति में उनका जन्म जिस वैचारिक आधारभूमि के साथ हुआ था, उसे रातोंरात ठेंगा दिखा देने से न तो उनकी इज्ज़त बढ़ी है और न प्रताप।

चूंकि दुर्भाग्यवश इस पूरी चकल्लस में सिंधिया की छवि किसी सिद्धांतवादी बाग़ी नायक के बजाय एक चिढ़े हुए मौक़ापरस्त प्रतिनायक की बनी है, इसलिए भाजपा में भी पूरी ऐंठ के साथ उन्हें अपने क़ाबिल-नाक़ाबिल अनुयायियों के लिए कुर्सियों की खींचतान करते देख मुझे कोई हैरत नहीं हुई। मैं उनके पिता माधवराव जी को भी काफी नज़दीक से जानता था। वे अपने हक़दारी को ले कर जितने शालीन लड़ाकू थे, ज्योतिरादित्य उतनी ही बेरहम शिशुवत शैली से अब भी लबरेज़ हैं। वे सिर्फ़ आयु के आधार पर किसी को आदरणीय मानने को मुझे कभी तैयार नहीं लगे। जहां तक अनुभव और समझ के चलते किसी को अपना अग्रज मानने का सवाल है तो पचास साल के ज्योतिरादित्य को लगता है कि उनके ये पहलू किसी से भी कमज़ोर नहीं हैं। इसलिए दिग्विजय सिंह को तो इसलिए छोड़िए कि वे तो पूर्व सिंधिया साम्राज्य में बित्ता भर की हैसियत रखने वाली एक रियासत भर के ठिकानेदार रहे हैं, मगर कमलनाथ को भी ज्योतिरादित्य ने कभी अपने से इक्कीसा नहीं माना। मैं ने देखा है कि राजनीतिक उठापटक में माधवराव जी को एक ज़माने में अर्जुन सिंह, श्यामाचरण शुक्ल और विद्याचरण शुक्ल जैसे कद्दावर नेताओं से भले ही मुश्क़िलें झेलनी पड़ी हों, मगर उन्हें सब का हार्दिक आदर मिलता था।

ज्योतिरादित्य इस विरासत के प्रतिनिधि नहीं बन पाए। अर्जुन सिंह, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे पुराने नेताओं से वे उसी तरह का सम्मान पाने के दुराग्रही बने रहे, जो उनके पिता को मिलता था। मध्यप्रदेश के बड़े कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य पर स्नेह लुटाने को तो तैयार थे, लेकिन उनके पीछे चलने को नहीं। सो, शिष्टाचार की औपचारिकताएं एक दिन तो टूटनी ही थीं। वे टूट गईं और ज्योतिरादित्य अपने जीवन की सब से बड़ी ग़लती कर बैठे। पांच साल बाद जिस कांग्रेस में वे ही सब-कुछ होते, उसे छोड़ कर वे चले गए। अपने तमाम समानतावादी स्वांग के बावजूद ज्योतिरादित्य में राजघराने की ठसक का अनुवंश बहुत गहरे ठंसा हुआ है। उनकी देह-भाषा कांग्रेस में तो चल गई, ‘मोशा’ की भाजपा में कतई चलने वाली नहीं है। मोहन भागवत का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अभी उस पुरातन मंडली की गिरफ़्त से आज़ाद नहीं हुआ है, जो सिंधियापन की नकचढ़ी उमंगों की अनदेखी कर दे।

खांटी संघी अभी से भाजपा के नेतृत्व को मध्यप्रदेश में राजतिलक के लिए ओंधे पसर जाने के लिए जी भर कर कोस रहे हैं। सितंबर में अगर मध्यप्रदेश की 24 सीटों पर उपचुनाव हो गए तो गांव की गलियों का गुस्सा शिवराज, भाजपा और पालाबदलुओं पर ऐसा फूटेगा कि मोशा-तिकड़मों की कोई पाल उसे बांध नहीं पाएगी। इस साल नवंबर के मध्य में दीवाली पार होते-होते प्रदेश में सियासत का पहिया फिर उलटा घूमने लगे तो आश्चर्य मत कीजिएगा। जब दीन-ईमान हमारी राजनीति से विदाई ही ले चुके हैं तो फिर हुकू़मतों को तो हिचकोले खाने ही हैं। ऐसे किसी मौक़े पर कांग्रेस ने अगर जोड़-तोड़ से राजसत्ता अपनी बगल में दबाने की कोशिश करने के बजाय मध्यावधि चुनाव में जाने का हौसला दिखा दिया तो, यक़ीन मानिए, आने वाले पंद्रह साल के लिए भोपाल उसका हो जाएगा। इसलिए टांगाटोली के ज़रिए आज बन गई इस सरकार की जन्म-कुंडली में अल्पायु योग मुझे तो साफ़ दिखाई दे रहा है।

पंकज शर्मा
( लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं, ये उनके निजी विचार हैं )

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here