चीनी वस्तुओं के बहिष्कार की अपील आज जनता व राजनेताओं की तरफ से आ रही है। केंद्रीय सरकार ने चीनी एप पर प्रतिबंध लगाया है। चीन से आयात की समीक्षा की जा रही है। हमने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का प्रयोग आजादी की लड़ाई में सफलता पूर्वक किया है। अतीत और वर्तमान की तुलना करते हैं तो राजनेताओं व नागरिकों के व्यवहार में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है। उस समय स्वदेशी को लेकर राजनेताओं व नागरिकों में प्रतिबद्धता थी। वे केवल बहिष्कार करने का नारा नहीं देते थे बल्कि स्वदेशी के प्रयोग को अपने जीवन शैली में उतारते थे। भारत व चीन के मध्य तनाव होने के बाद देश में जगह-जगह चीनी सामानों की होली जलाई गई। परंतु ये केवल औपचारिकता भर प्रतीत होता है योंकि आज भी धड़ल्ले से चीनी वस्तुओं की बिक्री हो रही है। भले बिक्री की संया में थोड़ी कमी आई हो। प्रतिबंध लगने तक लोग चीनी एप का प्रयोग कर रहे थे। केवल लोग दूसरों को चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का संदेश दे रहे हैं, जबकि लोग बहिष्कार कर दें तो आयातित चीनी वस्तुओं की बिक्री एकदम कम या समाप्त हो जायेगी। सरकार को इसके लिए कोई कदम नहीं उठाने पडेंग़े। सरकारें अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संधियों से बंधी होती हैं। जबकि देश की जनता आसानी से चीनी वस्तुओं का बहिष्कार करके खपत कम कर सकती है।
आजादी से पहले सर्वप्रथम 1905 में पूणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई थी। महात्मा गांधी ने 1921 में मुंबई में विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर स्वदेशी आन्दोलन का सूत्रपात किया था। उस समय हमारे नेताओं ने स्वदेशी को अपने आचरण में आत्मसात किया था। वे स्वयं स्वदेशी भाषा, वस्त्र, वस्तुओं व रहन-सहन को अपने जीवन में उतारते व जनता को भी ऐसा करने के लिए संदेश देते। जनता भी स्वदेशी अपनाने का ढोंग नहीं करती थी बल्कि उसे नेता के कहने पर अपने आचरण में उतारती थी। इन्ही के जरिए देश में स्वदेश का स्वाभिमान जागृत हुआ और हमें आजादी मिली। देश की जनता में स्वदेश का स्वाभिमान जाग्रत होने का परिणाम था कि उस समय के सबसे बड़े साम्राज्य की चूलें हिल गई। पर आज की स्थिति यह है कि स्वदेशी अपनाने के लिए विदेशी भाषा में संदेश दिया जाता है। चीनी सामानों की होली जलाये जाने का वीडियो की टिकटॉक पर बनाया जाता है। अधिकतर चीनी मोबाइल या चीनी पुर्जों से बने मोबाइल से स्वदेशी अपनाओ कार्यक्रम के छायाचित्र या चलचित्र बनाकर फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया पर पोस्ट किया जाता है।
नेता भी विदेशी परिधानों में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करते हुए स्वदेशी अपनाने की बात करते हैं। जब हमारे यहां स्वदेशी शिक्षा पद्धति नहीं है, मातृभाषा के बजाय अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा को प्रोत्साहित किया जाता है। सरकारी कामकाज अधिकतर विदेशी भाषा में होता है।आजादी से पहले भारतीय शिक्षा प्रणाली के जरिए, दयानंद सरस्वती, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, राजाराम मोहन राय, स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे महापुरूष भारत में हुए। वहीं मैकाले की शिक्षा पद्धति ने हर्षद मेहता, मेहुल चोकसी, नीरव मोदी जैसे लोगों को दिया। जब हमारे जीवन में विदेशी वस्तुओं का इतना हस्तक्षेप है तो हम स्वदेशी की बात कैसे कर सकते हैं। पहले हमें स्वदेशी को अपने जीवन में उतारना होगा। विदेशी प्रभुत्व का परिणाम है कि दीपावली में भारतीय कुम्हारों द्वारा बनी मूर्तियों को छोड़कर चीनी मूर्तियों की पूजा करने लगे। चीनी झालरों से घर सजाने लगे। यहां तक कि शुभ के लिए चीनी वास्तु की वस्तु खरीद कर घर में रखने लगे। चीनी वस्तुओं या किसी भी विदेशी वस्तु का उपयोग हमारी अर्थव्यवस्था के लिए घातक होता है। हम सभी यह जानते हैं। परन्तु इसको लेकर जागृति नहीं लाई जाती। अगर यही जाग्रति आ जाय तो विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र भारत किसी भी महाशक्ति को घुटने टेकने पर मजबूर कर देगा।