सोशल चेंज से सीधे जुड़े उच्च शिक्षा

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विकसित देशों जैसे अमेरिका-इंग्लैंड में उच्च शिक्षा की दो तरह की जिम्मेदारियां होती हैं। एक तो उनकी जीडीपी में बढ़ोतरी करना, दूसरे अपने आस-पास के क्षेत्रों में सामाजिक परिवर्तन की गति को निर्देशित करना। ऑक्सफर्ड, कैंब्रिज और शिकागो जैसे विश्वविद्यालयों ने इस दिशा में महती भूमिका निभाई है। भारत में उच्च शिक्षा से जीडीपी में बड़े योगदान की अपेक्षा तो अभी नहीं की जा सकती, किंतु सामाजिक परिवर्तन की दिशा में विश्वविद्यालय और शिक्षा संस्थाओं की भूमिका को विकसित करने के लिए भारत सरकार का मानव संसाधन मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) सक्रिय हैं। अभी हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने जिस ‘नई शिक्षा नीति’ के मसौदे को शीघ्र लागू करने की घोषणा की है, उसमें एक महत्वपूर्ण प्रतिबद्धता भारत में शिक्षा, विशेषकर उच्च शिक्षा की सामाजिक भूमिका विकसित करने की दिशा में भी प्रदर्शित की गई है। पांच-पांच गांव भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के निर्देश पर विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों से ‘उन्नत भारत योजना’ के तहत गांवों का चयन कर उनमें शोध तथा सहभागी गतिविधियां संपन्न कर उनके विकास को निर्देशित करने की अपेक्षा की गई है। इस दिशा में कार्य करते हुए भारतीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों ने अपने आस-पास के पांच-पांच गांवों का चयन कर वहां सामाजिक परिवर्तन के कार्य में सहभागी होने के उद्देश्य से अपने को जोड़ा है। शिक्षा संस्थाएं एक तरफ शिक्षित जन समुदाय सृजित करती हैं जो समाज परिवर्तन की शक्ति के रूप में सक्रिय होता है, दूसरी तरफ ये सरकार और प्रशासन के समानांतर अपनी सेवाभावी भूमिका के तहत प्रत्यक्ष तौर पर भी सामाजिक परिवर्तन और विकास को गति देती हैं।

मानव संसाधन मंत्रालय के सुझाव पर उन्नत भारत योजना के तहत ‘ग्राम विकास’ के लिए कई भारतीय विश्वविद्यालयों ने इस दिशा में बढ़ते हुए गांवों के माइक्रो डिवेलपमेंट मॉडल तैयार कर विकास को नियोजित करने का प्रयास किया है। भारतीय उच्च शिक्षा की सामाजिक भूमिका को प्रखर करने की दिशा में एक बड़ी जरूरत है समाज के गरीब, उपेक्षित सामाजिक समूहों के छात्रों को शिक्षा से जोड़ना। यह एक ऐसी भूमिका है जो पश्चिमी समाजों के लिए उतनी जरूरी नहीं है। भारत में निर्बल सामाजिक समूहों की प्रभावी उपस्थिति के कारण उच्च शिक्षा से इन समूहों के छात्रों को जोड़ने की अपेक्षा की गई है। इसके लिए पहले से चली आ रही आरक्षण और छात्रवृत्ति योजनाएं तो सहायक हैं ही, साथ-साथ भारतीय शिक्षा व्यवस्था नई संभावनाओं की तलाश भी कर रही है। निर्बल सामाजिक समूहों को शिक्षा से जोड़ने की दिशा में कोरोना संकट के दिनों में एक नई संभावना के रूप में ‘ऑनलाइन शिक्षण’ पद्धति का भी विस्तार हुआ है। मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने इस कोरोना समय में ‘आपदा को अवसर’ में बदलने की दिशा में पहल करते हुए उच्च शिक्षा में ऑनलाइन शिक्षा के विस्तार की प्रक्रिया को काफी तेज कराया है। विश्वास है कि सरकार निर्बल समूहों को स्मार्ट फोन, लैपटॉप तथा इंटरनेट के संसाधनों से जोड़ने की दिशा में आवश्यक योजनाएं प्रारंभ करेगी जिससे ऑनलाइन शिक्षा का फायदा गरीब-गुरबा तक पहुंच पाएगा। कोरोना ने न केवल सरकार, समाज और विकास की गति के सामने संकट खड़ा किया है, बल्कि भारतीय उच्च शिक्षा के सामने नई चुनौतियां भी ला दी हैं। कोरोना जनित लॉकडाउन में बड़े पैमाने पर प्रवासी मजदूर अपने कार्य क्षेत्र से विस्थापित हुए हैं। जहां वे कार्य कर रहे थे, वहां उनके बच्चे पढ़ रहे थे।

ऐसे में कोरोना के कारण हुए विस्थापन ने उनके बच्चों को शिक्षा से भी विस्थापित किया है। आज चुनौती यह है कि इन छात्रों की पढ़ाई छूटने न दी जाए। इस सामाजिक जरूरत को समझकर अभी हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्री ने घोषणा की है कि जो जहां है, वहां के स्थानीय शिक्षा संस्थानों में जाकर परीक्षा दे सकता है। भारतीय उच्च शिक्षा को विकास के इंजन के रूप में प्रस्तावित करते हुए सरकार दूरस्थ क्षेत्रों और अति पिछड़े सामाजिक समूहों की आबादी वाले क्षेत्रों में केंद्रीय विश्वविद्यालय खोलने की नीति पर काम करती रही है। इससे एक तो केंद्रीय विश्वविद्यालयों के माध्यम से इन क्षेत्रों में शिक्षा फैलेगी, दूसरे इनके वहां स्थापित होने से स्थानीय आबादी के लिए व्यवसाय और रोजगार भी सृजित होंगे। इन्हीं उद्देश्यों से उड़ीसा, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों के जनजातीय बहुल क्षेत्रों में केंद्रीय विश्वविद्यालय खोले जा रहे हैं जबकि भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्रों जैसे मणिपुर, मिजोरम में भी केंद्रीय विश्वविद्यालय और केंद्रीय शोध संस्थान खोले जा रहे हैं। अभी हाल ही में सरकार ने आंध्र प्रदेश के जनजातीय क्षेत्र में एक नए केंद्रीय विश्वविद्यालय को स्थापित करने की दिशा में पहल तेज की है।

दूरस्थ क्षेत्रों में और निर्बल सामाजिक समूहों की घनी आबादी वाले क्षेत्रों में केंद्रीय विश्वविद्यालय की वहां के सामाजिक परिवर्तन में गतिमान भूमिका निर्मित करने के लिए यह जरूरी है कि ऐसे विश्वविद्यालयों में इन सामाजिक समूहों से संवेदनशीलता और इनकी बेहतरी की प्रतिबद्धता रखने वाले दृष्टिवान कुलपतियों का चयन हो। नहीं तो ऐसे विश्वविद्यालय मात्र सामान्य विश्वविद्यालय बन कर रह जाएंगे। सामाजिक बदलाव भारतीय उच्च शिक्षा के विस्तार के माध्यम से नएऔर आत्मनिर्भर भारत के निर्माण की चुनौती तो है ही, साथ ही इससे सामाजिक परिवर्तन में भी महत्वपूर्ण भूमिका की अपेक्षा की जा रही है। इसके लिए भारतीय उच्च शिक्षा में नेतृत्व की एक ऐसी पीढ़ी तैयार करनी होगी, जो शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की दशा-दिशा को भी समझती हो और जिसको उपेक्षित तथा निर्बल समूहों के जीवन स्पंदन की जानकारी हो। इसके साथ ही शिक्षा संस्थाओं को ऐसी परियोजनाओं के लिए संसाधन भी मुहैया कराने की जरूरत पड़ेगी। भारत सरकार का मानव संसाधन मंत्रालय तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग इसी दिशा में सक्रिय व संवेदनशील हैं। इससे आशा बंधती है।

बद्रीनारायण
(लेखक जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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