चीनी जब ‘क्राइसिस’ (संकट) शब्द लिखते हैं तो दो ब्रशस्ट्रोक्स इस्तेमाल करते हैं। एक का मतलब है डर, दूसरे का अवसर। कुछ देश डर से भर जाते हैं, कुछ खुद को बेहतर बनाने के रास्ते तलाशते हैं। कोरोना ने हमारे देश की क्षमता की परीक्षा ली है। इसमें भारत का प्रदर्शन कैसा रहा और हमने अब तक क्या सीखा है?
पहला सबक यह है कि सरकार की शक्ति का हथौड़ा लोगों के जीवन पर सावधानीपूर्ण विनम्रता से पड़ना चाहिए। भारत का लॉकडाउन दुनिया में सबसे सख्त था और शायद सबसे दु:खदायी भी। एक आघात में लाखों की नौकरी चली गई। रोज दिहाड़ी कमाने वालों के लिए इसका मतलब गरीबी और भुखमरी तक था।
समझदारी से लक्ष्य तय कर किया गया लॉकडाउन शायद एक अरब लोगों को नुकसान पहुंचाए बिना कुछ संक्रमित लोगों की रक्षा कर पाता। प्रवासियों को घर जाने का समय देने पर इतने दर्द से बच सकते थे। दक्षिण अफ्रीका ने एक हफ्ते और बांग्लादेश ने चार दिन का नोटिस दिया। ‘महामारी’ शायद बहुत कठोर शब्द था, जिससे प्रवासी इतना डर गया कि वह बस मरने के लिए घर जाना चाहता था।
संक्रमित 1 से 3% लोगों की टेस्टिंग, ट्रेसिंग आदि पर निवेश ज्यादा होता, जो शायद सभी आर्थिक गतिविधियां रोकने से बेहतर होता। पीछे मुड़कर देखते हुए यह कहना आसान है और युद्ध के धुंध में कम प्रतिक्रिया देना उतना ही बुरा है, जितना अति प्रतिक्रिया। नेता को महाभारत में विदुर के शब्द याद होने चाहिए। उन्होंने धृतराष्ट्र को सलाह दी थी कि कोई नुकसान न पहुंचाना राजधर्म का पहला सिद्धांत है।
दूसरा सबक लोकप्रिय और तर्कसंगत के बीच सामंजस्य बैठाने की मुश्किल है। विपक्ष के नेताओं और टिप्पणीकारों को जीडीपी का 1% देने की दौड़ में भागते देखना अजीब था। भारत में ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम’ की उम्मीद करना गैरजिम्मेदाराना है। हां, सरकार ने प्रोत्साहन पैकेज में कंजूसी दिखाई। उसे जन-धन खातों में ज्यादा पैसा भेजना था।
तीसरा सबक भारत में कमजोर सरकारी क्षमता की समस्या से जुड़ा है, जो इस संकट के समय में कमजोर स्वास्थ्य सेवाओं से और स्पष्ट हो गया है। हमारी प्राथमिकता सरकारी संस्थानों को मजबूत करने पर खर्च करना होनी चाहिए। भारत की भौतिक अधोसंरचना कमजोर है, जिस वजह से भारत वैश्विक सप्लाई चेन से जुड़ने और ज्यादा उत्पादक नौकरियां पैदा करने में असफल रहा है।
कोरोना संकट एक दिन खत्म हो जाएगा। हमें नौकरियां पैदा करने की प्राथमिकता का चौथा सबक नहीं भूलना चाहिए। जो आर्थिक गतिविधि के लिए ज्यादा निवेश करने की बात करते हैं, वे हमारी राजकोषीय स्थिति की असुरक्षा भूल जाते हैं। मैं ज्यादा स्थायी नौकरी पैदा करने के विकल्प का समर्थन करूंगा।
पांचवा सबक एक उम्मीद है। भारत सही तरीकों से काम करे तो आईटी, फार्मा और ऑटो के बाद हेल्थकेयर वृद्धि वाला और बड़ी संख्या में रोजगार देने वाला क्षेत्र बन सकता है। सरकार को हेल्थकेयर पर खर्च बढ़ाने की जरूरत है, लेकिन क्रांति तभी आएगी, जब प्राइवेट सेक्टर को इसमें भारी निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।
छठवां सबक यह है कि राज्यों के पास सीमाएं बंद करने की शक्ति नहीं होनी चाहिए। संघवाद और विकेंद्रीकरण अच्छे हैं लेकिन तब नहीं अगर ये भारत की एकता कमजोर करते हैं।
कोविड का सातवां नतीजा अदृश्य प्रवासी मजदूर की खोज है। भारत ने पिछले दो दशकों में इतिहास का सबसे बड़ा पलायन देखा क्योंकि सुधारों ने बहुत नौकरियां पैदा की थीं। लेकिन जब महामारी आई, लाखों घर वापस जाना चाहते थे। कोई भी सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी। सबक यह है 1979 के प्रवासी अधिनियम को सुधारा जाए।
आठवां सबक यह है कि प्रवासी मजदूरों की परेशानी से भारत के लेबर मार्केट का अनैतिक दोगलापन सामने आया है। भारत का कानून नौकरियां बचाता है, कामगार को नहीं। नियोजक स्थायी कामगार को नियुक्त करने में हिचकते हैं और 80% कामगार अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में झोंक दिए जाते हैं।
नौंवा सबक शब्दों के चयन को लेकर सावधानी है। ‘आत्मनिर्भर’ कोरोना विमर्श में आया निराशाजनक शब्द है। इसका मतलब है खुद पर निर्भर होना (जो कि अच्छा है) और खुद के लिए ही पर्याप्त होना (जो कि बुरा है)। प्रधानमंत्री ने उसका इस्तेमाल दोनों अर्थों में किया है। जब तक कि वे स्वदेशी संरक्षणवाद को पलटने से इंकार नहीं कर देते, तब तक दुर्भाग्य से वे भारत के निर्यात की संभावनाओं को खत्म कर देंगे, जिससे 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना भी खत्म हो जाएगा।
चूंकि भारत केवल संकट के समय सुधार करता है, ऐसे में दसवां सबक है इस अवसर को बर्बाद न करना। प्रधानमंत्री मोदी ने श्रम, जमीन, लिक्विडिटी और कानूनों में मौलिक बदलावों की उम्मीद दी है। अगर वे सच में लंबित सुधार करते हैं, तो देश को प्रतिस्पर्धात्मक, निवेश के लायक और भारी संख्या में उत्पादक नौकरी देने वाला बना देंगे। वे अच्छे दिन ले आएंगे और साबित कर देंगे कि भारत ने कोरोना संकट के दौरान क्षमता दिखाई है और एक मजबूत देश बनकर उभरा है।
(ये लेखक गुरुचरणदास के अपने विचार हैं)