विपक्ष को राजनीति से डर

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भारत में राजनीति स्थगित दिख रही है। सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी इस समय ऐसी कोई बात नहीं कहना चाहती है जिससे सरकारी दल को यह आरोप लगाने का मौका मिले कि कोरोना वायरस के समय में देखिए कांग्रेस राजनीति कर रही है। कांग्रेस तो इतनी बैकफुट पर आ गई कि कोरोना संकट के मध्य में भाजपा ने उसकी मध्य प्रदेश की सरकार गिरा दी, फिर भी कांग्रेस ने ‘राजनीति’ नहीं की। वैसे भी इन दिनों राजनीति करने का सर्वाधिकार सिर्फ एक दल के पास सुरक्षित है। बाकी कोई पार्टी अगर राजनीति करती है तो वह वस्तुतः देश के विकास में बाधा पहुंचा रही होती है।

बहरहाल, बात इससे शुरू हुई है कि राजनीति स्थगित है। कोरोना का संकट शुरू होने से ठीक पहले देश में राजनीति चरम पर थी। नागरिकता के मसले को लेकर हंगामा मचा हुआ था। दिल्ली में शाहीन बाग का आंदोलन उस हंगामेदार राजनीति का प्रतीक था। अकेले दिल्ली में 16 जगह पर शाहीन बाग की तरह आंदोलन चल रहे थे। देश के हर बड़े शहर में कई-कई जगहों पर लोग संशोधित नागरिकता कानून, सीएए के विरोध में आंदोलन कर रहे थे। राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर, एनपीआर को अपडेट करने और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर, एनआरसी की संभावना से समाज का एक बड़ा तबका उद्वेलित था। कांग्रेस और कई विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों ने एनपीआर और एनआरसी के विरोध में प्रस्ताव पास किया था। अब सब कुछ अपने आप रूका हुआ है।

इसी तरह जम्मू कश्मीर को लेकर संसद के पिछले सत्र में कई बार सवाल उठे और हिरासत में रखे गए नेताओं की रिहाई की मांग हुई। पूरा प्रदेश पांच अगस्त से लॉकडाउन में है। पर अब तो कोरोना की वजह से पूरा देश ही लॉकडाउन में है तो कश्मीर की बात कौन उठा रहा है! जो नेता रिहा हो गए वे रिहा हो गए और जो हिरासत में हैं उनके बारे में कोई पूछने वाला नहीं है। विधानसभा भंग हुए डेढ़ साल हो गए। राज्य का विशेष दर्जा खत्म हुए भी नौ महीने हो गए। लोकतंत्र राजभवन के हवाले है और कहीं से भी चूं कि आवाज नहीं निकल रही है। पूरे देश में कोरोना का कहर शुरू होने से पहले ही प्रदेश में लोकतंत्र स्थगित कर दिया गया था।

डूबती अर्थव्यवस्था का बड़ा मुद्दा देश के सामने था। दुनिया भर के आर्थिक जानकार और रेटिंग एजेंसियां भारत की विकास दर में गिरावट के अनुमान लगा रही थीं। हर तिमाही में विकास दर थोड़ी-थोड़ी कम हो रही थी। बेरोजगारी की दर 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई थी। यह सब तब था, जब कोरोना वायरस का संक्रमण नहीं शुरू हुआ था और देश में लॉकडाउन लागू नहीं था। सब कुछ खुला हुआ था तब आर्थिकी का भट्ठा बैठने लगा था, तो अब भला इसके बारे में क्या बात हो सकती है। अब तो लोगों को सिर्फ जान बचाने की पड़ी है।

अब सवाल है कि कोरोना वायरस का संक्रमण खत्म होने के बाद इन मुद्दों का क्या होगा? क्या नागरिकता, जम्मू कश्मीर, अर्थव्यवस्था, संघवादी ढांचे का टूटना, चुनी हुई सरकारों का गिराया जाना ये सब राजनीतिक मुद्दे उठेंगे? इसकी संभावना कम है। कारण यह है कि आपात स्थिति बहुत सी चीजों को बदल देती हैं। आपातकाल के बहाने सरकारों को असीमित अधिकार मिलते हैं- कानून बदलने, बनाने के। सामान्य स्थितियों में सरकारों को जो फैसले करने में बरसों लग जाते हैं, वो फैसले आपात स्थितियों में चुटकियों में होते हैं। और यह भ्रम है कि आपात स्थितियों में किए गए फैसले स्थितियां बदलने के बाद बदल जाती हैं। ज्यादातर ऐसे फैसले बाद में भी लागू रह जाते हैं।

सोचें, सामान्य स्थितियों में यदि सरकार को कोई ऐसा फंड बनाना होता, जिसमें हजारों करोड़ रुपए का चंदा आए और उसकी सीएजी से जांच न हो तो क्या यह आसानी से संभव था? पर कोरोना के नाम पर अध्यादेश के जरिए यह भी हो गया। स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा के नाम पर अध्यादेश के जरिए 123 साल पुराने एक कानून को भी बदल दिया गया। केंद्रीय बैंक से कर्ज लेने के नियमों में 20 दिन में दो बार बदलाव कर दिया गया। जब तक संकट है तब तक और पता नहीं कितने बदलाव होंगे। लेकिन जो बदलाव हो जाएगा वह स्थायी होगा।

यह सही है कि कोरोना वायरस से लड़ने में राज्य सरकारों को केंद्र का साथ देना चाहिए और विपक्षी पार्टियों को भी सरकार के साथ सहयोग करना चाहिए। पर वह सहयोग आंख बंद करके नहीं होना चाहिए। चाहे संकट हो या नहीं हो, विपक्ष का काम सरकार के फैसलों की समीक्षा करना है, उस पर सवाल उठाना है। पर विपक्ष इस चिंता में है कि अगर उसने अभी कोई सवाल उठाया तो उस पर आरोप लगेंगे कि वह संकट की इस घड़ी में भी राजनीति कर रही है। तभी विपक्षी नेता इक्का-दुक्का बयानबाजी के अलावा कोई ऐसा काम नहीं कर रहे हैं, जिससे वे सरकार पर सवाल उठाते दिखें। कोरोना वायरस से लड़ने में सहयोग करना अपनी जगह है। सहयोग करते रह कर भी विपक्ष इस वायरस को लेकर हो रहे सांप्रदायिक प्रचार का विरोध कर सकता है, मनमाने तरीके से और अनाप-शनाप कीमत पर हो रही खरीद का विरोध कर सकता है, संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाने वाले फैसलों पर सवाल उठा सकता है और यहां तक कि कोरोना वायरस के लड़ने के तरीके अगर सही नहीं दिख रहे हैं तो उन पर भी सवाल उठा सकता है। यह समझ लेना चाहिए कि कोई भी समय राजनीति करने के लिए प्रतिबंधित नहीं होता है और न कोई खास समय बहुत अनुकूल होता है।

अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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