बांद्रा जैसी घटनाएं न हो

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पूरी दुनिया कोरोना के आगे के पस्त हो रही है, यह स्थिति तब तक बनी रहेगी, जब तक इसके रोकथाम के लिए वैसिन नहीं खोज लिया जाता। तमाम मुल्कों में इसका तोड़ तलाशने की युद्ध स्तर पर कवायद चल रही है। ऐसे में भारतीय परिप्रेक्ष्य में जरूरी हो गया है कि लॉकडाउन के विस्तार को नतीजा परक बनाना चाहते है तो खुद को जितना जरूरी हो सके। एकांत में लाये। आपस में भी पूरी सतर्कता बरतते हुए ही इस संकट को और व्यापक होने से बचाया जा सकता है। 20 अप्रैल यानि एक हते के जिस कठोर नियम-व्रत की बात प्रधानमंत्री की तरफ से कही गई है। उसकी शरण में रहें। तभी एक समूह, समाज और राष्ट्र के रूप में बेहतर उम्मीद की जा सकती है। यह बड़ा अफसोसजनक रहा कि लॉकडाउन के अगले चरण से ठीक पहले शाम में जिस तरह देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई के बांद्रा स्टेशन के समीप जामा मस्जिद के इर्द-गिर्द कुछ हजार लोगों की जमा भीड़ ने कम्युनिटी ट्रांसमिशन की आशंका को बढ़ा दिया, यह अत्यन्त चिन्तिनीय है।

हालांकि कुछेक एक घंटे बाद जरूरी पुलिस के हल्के बल प्रयोग के बाद भीड़ तितर-बितर हो गई। इसी तरह का मंजर दिल्ली-यूपी बार्डर पर मार्च में दिखा था। फर्क सिर्फ इतना है कि तब लोगों के हाथों में सामान था और इस बार बांद्रा में जो मंजर था, उसमें लोग खाली हाथ थे। मुम्बई छोड़ अपने घरों को लौटने को जिद कर रहे थे। एक और साभ्यता यह बतायी गई कि आर्थिक अनिश्चतता के चलते इस तरह का कदम उठाना पड़ा। पर एक सवाल इस सब के बीच अनुत्तरित है कि इतनी बड़ी तादाद में लोग खुद बखुद जुटे या जुटाया गया। हालांकि घटना के बाद भी यह बात हवा में गूंजने लगी कि कुछ देश विरोधी ताकतों ने ही अफवाह फैलाकर यह चिन्तित करने वाला दृश्य रचा, वैसे बाद में इस सिलसिले में कुछ लोगों की गिरतारियां भी हुई। पर यह यही तक सीमित नहीं है। खुफिया रिपोर्ट इस तरह की मिलती रही हैं कि देश को आर्थिक अनिश्चितता में धकेलने की कोशिश हो रही है। दुर्भाग्य यह है कि कोरोना का इस्तेमाल एक हथियार के तौर पर करने की योजना है।

यह मानने में अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यह संकट जितना लम्बा खिचेगा उतनी ही आर्थिक चुनौतियां और गंभीर होगी। देश का जीडीपी दो और ढाई फीसदी के करीब अगले कुछ महीनों में पहुंच सकता है। इस त्रासदी की संभावना से मुकाबले के लिए यह आवश्यक है कि सबके एक सुर हो। यह समय मिले सुर मेरा तुम्हारा वाला है। पर चिन्ताजनक यह है कि सियासतदां इस गंभीरता को नजरंदाज करते हुए दिख रहे है। ऐसा देश हित में नहीं कहा जा सकता। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि इस कुचक्र में सारे सियासत दलों की स्थिति एक जैसी है। इतना समझना ही काफी है। संकट के दिनों में सियासी दलों से भी अपेक्षा है कि वे अपना मतभेद भुलाकर एक हो। पहले इस त्रासदी से निपटा जायेए उसके बाद बहुत समय अपनी राजनीति को चमकाने का मिलेगा। देश सियासी दलों के रहनुमाओं से यही उम्मीद करता है। अन्य देशों में यह देखने और समझने लायक है कि पार्टियां इन दिनों सियासत से ऊपर उठकर अपने-अपने मुल्कों के हित को सर्वोपरि रख रही हैं। क्या यह मंजर भारतीय परिदृश्य में भी देखने को मिलेगा।

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