जीवन से मुंह मोड़ती घर की लक्ष्मी

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हाल में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ‘एक्सिडेंटल डेथ ऐंड सुसाइड रिपोर्ट’ ने खुलासा किया कि बीते कुछ दशकों से देश में घरेलू महिलाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। साल 2018 में 42,391 महिलाओं ने जान दी, जिनमें से 54.1 प्रतिशत गृहिणियां थीं। 1997 से अब तक भारत में हर साल तकरीबन 20 हजार गृहिणियों ने अपनी जीवनलीला खत्म कर ली। ये आंकड़े विश्व के उन तमाम शोधों को गलत ठहराते हैं, जिनका निष्कर्ष यह है कि महिलाएं शादीशुदा होने पर कहीं अधिक सुरक्षित महसूस करती हैं। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के शादीशुदा लोगों में उसी उम्र के गैर-शादीशुदा लोगों की तुलना में आत्महत्या की दर कम है। यहां प्रश्न सिर्फ घरेलू महिलाओं की आत्महत्या का नहीं है। सवाल यह है कि क्यों इस विषय को लेकर समाज के किसी तबके के बीच या राजनीतिक गलियारों में चर्चा नहीं होती? इसका सीधा सा कारण इस मुद्दे की राजनीतिक अप्रासंगिकता है। एनसीआरबी के आंकड़े बताते है कि वर्ष 2018 में भारत में हुई कुल आत्महत्याओं में किसानों का प्रतिशत 7.7 है जबकि गृहिणियों का 17.2। यह स्थिति पिछले कई सालों से बदस्तूर कायम है, फिर जिम्मेदार मंचों से चर्चा सिर्फ किसानों की आत्महत्या की ही क्यों होती है? शायद इसलिए कि महिलाओं की खुदकुशी पर बात करने से कोई सियासी फायदा नहीं होने वाला। अगर मान लें कि देश किसानों की आत्महत्या को लेकर संवेदनशील है, तो भी यह संवेदनशीलता एकपक्षीय क्यों? महिला किसानों द्वारा की गई आत्महत्याओं की गिनती क्यों नहीं की जाती। क्या देश महिला किसानों को किसान नहीं मानता।

10 वीं कृषि जनगणना के मुताबिक वर्ष 2010-11 में महिला किसानों की तादाद कृषकों की कुल संख्या का 12.79 प्रतिशत थी, जो 2015-16 में बढ़·र 13.87 प्रतिशत हो गई। ये महिला किसान गृहिणियां भी हैं। लगता है, हम मान बैठे हैं कि महिलाओं को समान अधिकार देना संभव नहीं, इसलिए उनसे जुड़े मुद्दों की चर्चा ही निरर्थक है। भारत में महिलाओं की आत्महत्या की दर वैश्विक औसत दर की दोगुनी से भी ज्यादा है। यूं तो घरेलू महिलाओं में आत्महत्या की ऊंची दर के लिए लैंगिक भेदभाव को जिम्मेवार ठहराया जा सकता है, परंतु ऐसे कई और भी कारण हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से असर डालते हैं। सितंबर 2018 में चिकित्सा पत्रिका ‘द लांसेट’में प्रकाशित 2016 के अध्ययन ‘जेंडर डिफ्रेंशियल्स ऐंड स्टेट वैरिएशंस इन सुसाइड डेथ्स इन इंडिया द ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज स्टडी’ में बताया गया है कि दुनिया भर में महिलाओं की आत्महत्या का सीधा संबंध घरेलू हिंसा से है। तमाम शोध बताते हैं कि घरेलू हिंसा महिलाओं के आत्मसम्मान को इस कदर चोट पहुंचाती है कि वे अवसादग्रस्त हो जाती हैं और यह अवसाद जीवन जीने की इच्छा को समाप्त कर देता है। चौथे राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि देश में 15-49 साल के आयु वर्ग में 29 प्रतिशत विवाहित महिलाओं ने अपने जीवनसाथी की हिंसा झेली है और इसी आयु वर्ग की गृहिणियां सबसे ज्यादा आत्महत्या करती हैं।

भारतीय परिवार और समाज उन महिलाओं के प्रति अत्यधिक निष्ठुर जान पड़ता है जो घर से बाहर जाकर ‘धन अर्जित’ नहीं करतीं। गृहिणियों के श्रम की निरंतर अवहेलना उन्हें यह अहसास कराती है कि उनका जीवन परिवार के लिए मूल्यहीन है, जबकि सत्य इसके बिलकुल विपरीत है। ऑक्सफैम की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत में यदि महिलाओं और लड़कियों के उस काम को जोड़ा जाए, जिसका भुगतान नहीं किया जाता तो उसका सालाना मूल्य कम से कम 19 लाख करोड़ रुपये के बराबर होगा। उनके काम को कम आंकना असंवेदनशीलता नहीं तो और क्या है? आत्महत्या पर किए गए अध्ययनों में पाया गया है कि लगभग 80 फीसदी मामलों में पीडि़त महिलाएं अवसाद से ग्रस्त थीं। दरअसल अल्पायु में विवाह और मातृत्व का अनचाहा बोझ जब उन्हें बंधनों में जकड़ लेता है तो महिलाएं डिप्रेशन का शिकार हो जाती हैं। यह स्वाभाविक इसलिए भी है कि युवावस्था में विपरीत परिस्थितियों से लडऩे की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है। अध्ययन बताते हैं कि देश में हर साल 3.60 करोड़ बाल विवाह होते हैं। हमारे समाज की संरचना अब भी अर्ध सामंती है, जिसमें स्त्री की स्थिति दोयम है। उसके पास खुद के बारे में निर्णय के अधिकार न के बराबर हैं। खानपान, पहनावा आदि पर भी पहले पुरुषों का हक है। स्त्रियों का नंबर बाद में आता है। ससुराल में महिलाओं को असंख्य बातों के लिए अकारण ताने सुनने पड़ते हैं जिनमें सुंदर न होना, खाना अच्छा न बनाना और बेटी पैदा करना जैसी बातें प्रमुख हैं। कच्ची उम्र में लड़कियां यह सब नहीं झेल पातीं। सामाजिक मर्यादा यह है कि ससुराल की ये बातें औरत किसी से शेयर भी नहीं करती क्योंकि इससे परिवार की बदनामी होती है।

(लेखिका ऋतु सारस्वत स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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