भारत के संविधान को आकार देते वक्त इसके निर्माता भीमराव आंबेडकर ने शायद ही सोचा होगा कि इसके लागू होने के 70 साल बाद लोग इसकी दुहाई एक धर्मग्रंथ की तरह देते हुए अपना अधिकार मांगेंगे। दुनिया में कहीं ऐसा नहीं हुआ कि संविधान को लोग सिर्फ शासन के नियमों की किताब मानने के बजाय प्रतिरोध का हथियार बना लें। भारतीय संविधान ऐसा महान दस्तावेज कैसे बन गया/ ऐसा इसलिए हुआ कि इसने लोकतंत्र के विकास के कई चरण एक साथ पार किए हैं। यह आजादी के आंदोलन के संघर्षों को इनकी समग्रता में अभिव्यक्त करता है। विविधता से भरे स्वाधीनता आंदोलन को हर तरह की गैर-बराबरी के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा। यही वजह है कि दुनिया के बाकी संविधानों के विपरीत इसने न सिर्फ अपने सभी नागरिकों को बराबरी के सारे अधिकार एक साथ दिए बल्कि इससे आगे जाकर बेहतर संसार रचने का सपना भी दिया। वयस्क मताधिकार को ही लें। इंग्लैंड या अमेरिका जैसे महान लोकतंत्रों में भी यह सबको एक साथ नहीं मिला। महिलाओं को मताधिकार देने में उन्होंने लंबा वक्त लगाया। कहीं नस्ल और धर्म तो कहीं आर्थिक आधार पर लोगों को इससे वंचित रखा गया। कई लोग मानते हैं कि भारतीय संविधान को ब्रिटिश सरकार की ओर से समय-समय पर लाए गए वैधानिक परिवर्तनों का आधार मिला था।
लेकिन भारत जब आजाद हुआ तो देश में सिर्फ 14 प्रतिशत लोग ही वोट दे सकते थे, जो संपत्ति वाले और पढ़े-लिखे थे। यानी जम्मींदार, व्यापारी, वकील, डॉक्टर आदि। अलग-अलग समुदायों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र भी थे। भारत में एक विकलांग लोकतंत्र बन रहा था। संविधान निर्माताओं के पास इसी सीमित लोकतंत्र की औपनिवेशिक परंपरा थी और जम्मींदारों, पूंजीपतियों या जड़ सामाजिक सोच वाले समूहों के प्रतिनिधियों से भरी संविधान सभा। सोचिए, 1952 में जमींदार और हल जोतने वाला भूमिहीन वोट देने के लिए एक ही लाइन में खड़े हुए तो उनके मन में भाव क्या रहे होंगे/ सदियों से हर सार्वजनिक स्थान से बहिष्कृत रहता आया दलित जब लोकतंत्र के मंदिर में तथा-कथित इज्जत वालों के साथ खड़ा हुआ तो उसे कैसा लगा होगा? इसका लेखा-जोखा तो असंभव है लेकिन इस अधिकार की ताकत को जानना हो तो बिहार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास को पलटना चाहिए, जहां उच्च वर्ण के लोग दलितों को वोट ही नहीं डालने देते थे। कई बार तो दलितों को जान गंवानी पड़ती थी। बूथ कैप्चरिेंग कही जाने वाली इन घटनाओं को मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने चुनौती के रूप स्वीकार किया और भारतीय चुनाव प्रणाली को इस बीमारी से छुटकारा दिलाया। सभी को वोट का अधिकार देने वाले संवैधानिक अनुच्छेद को बाबा साहेब ने लिखा था।
उन्होंने कहा था कि वोट देने का अधिकार नागरिकता के लिए आवश्यक है और यह लोगों को नैतिक रूप से राजकीय व्यवस्था का सदस्य बनाता है। उनके अनुसार, ‘यह उन लोगों की राजनीतिक शिक्षा का जरिया है जिन्हें राजनीतिक और सामाजिक जीवन से आज तक बाहर रखा गया है।’ उनका इशारा उनकी ओर था जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी मंदिरों, रास्तों, कुंओं, तालाबों से दूर रखा गया था और जो इंसान होने के नैसर्गिक अधिकार से भी वंचित थे। भावी पीढिय़ां इस पर जरूर अचरज करेंगी कि ऐसा देश, जिसका विभाजन मजहब के आधार पर हुआ था और जहां दस लाख से भी ज्यादा लोग दंगों में मारे गए थे, एक सेक्युलर मुल्क कैसे बन गया। इसका श्रेय उन बलिदानों को जाता है, जो हमारे रहनुमाओं और हमारी जनता ने दिया है। हमें नोआखाली के नदी-नालों को पार कर मजहबी उन्माद की आग बुझाने में लगे महात्मा की बेचैन आंखों में झांकना होगा, या दिल्ली में मनाई जा रही आजादी की खुशियों से दूर कोलकता में आमरण उपवास पर बैठे गांधी की ओर देखना पड़ेगा, जिन्होंने नफरत की आग को मानवता की मद्धिम आंच में बदल दिया। कई बार भारतीय संविधान को धर्मनिपरेक्ष बनाने का श्रेय हिंदू धर्म की सहिष्णुता को देने की कोशिश की जाती है। लेकिन आजादी के आंदोलन में हिंदुत्व की धारा की भूमिका को गौर से देखने पर एक अलग ही तस्वीर उभरती है। इसके सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर इस्लाम और ईसाइयत को बाहरी धर्म मानते थे और उन्हें मानने वालों को भारत की पूर्ण नागरिकता के काबिल नहीं मानते थे।
मुसलमान उनके दुश्मन थे, जो यहीं के थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस आजाद हिंद फौज बना रहे थे, लेकिन हिंदू महासभा अंग्रेजों की फौज में भर्तियां कराने में जुटी थी। अगर संविधान-निर्माता संविधान को सेक्युलर बना पाए तो इसलिए कि उनके पास गांधी, बिस्मिल-अशफाकुल्ला और भगत सिंह की शानदार शहादत की विरासत थी, जिसने सहिष्णुता को किसी धर्म या मजहब से नहीं बंधने दिया। भारतीय संविधान की एक और कामयाबी है, भारत में लोकतंत्र की एक मजबूत नींव डालने की। भारतीय उपमहाद्वीप में हमारे साथ जन्म लेने वाले पाकिस्तान को ही देख लें। आज भी वहां एक अर्धलोकतंत्र ही है,क्योंकि चुनी हुई सरकार फौज की मर्जी के खिलाफ कुछ नहीं कर सकती। पाकिस्तान में लोकतंत्र का यह हश्र इसलिए हुआ क्योंकि मुस्लिम लीग लोकतांत्रिक और सेक्युलर मूल्यों में यकीन नहीं करती थी। जिन्ना ने बंटवारा कराने में सफलता जरूर पा ली, लेकिन गांधीजी ने मुल्क बनाने में उन्हें हरा दिया। उनके वारिस जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल अगर सांप्रदायिक नफरत के बीच भी उनके मूल्यों पर न टिके होते तो डॉ. आंबेडकर जैसे विलक्षण व्यक्तित्व भी एक ऐसी किताब भारत के लोगों के हाथ में नहीं रख पाते, जो संशय की हर अंधेरी रात में लोगों को रोशनी देती है। लोकतंत्र के सामने एक चुनौती इंदिरा गांधी के आपातकाल के समय आई थी तो गांधीजी के ही एक शिष्य जयप्रकाश नारायण के आंदोलन ने उसे पटरी पर ला दिया था। ऐसा हर झटका बर्दाश्त करने की ताकत भारत के संविधान में है।
अनिल सिन्हा
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)