दशहरा बुराइयों से संघर्ष का प्रतीक पर्व है। सब जानते हैं। बीत भी गया है। आज भी अंधेरों से संघर्ष करने के लिये इस प्रेरक एवं प्रेरणादायी पर्व की संस्कृति को जीवंत बनाने की जरूरत है। प्रश्न है कौन इस संस्कृति को सुरक्षा दे? कौन आदर्शों के अभ्युदय की अगवानी करे? कौन जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठापना में अपना पहला नाम लिखवाये? बहुत कठिन है यह बुराइयों से संघर्ष करने का सफर। बहुत कठिन है तेजस्विता की यह साधना। आखिर कैसे संघर्ष करें घर में छिपी बुराइयों से, जब घर आंगन में रावण-ही-रावण पैदा हो रहे हों, चाहे भ्रष्टाचार के रूप में हो, चाहे राजनीतिक अपराधीकरण के रूप में, चाहे साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने वालों के रूप में हो, चाहे शिक्षा, चिकित्सा एवं न्याय को व्यापार बनाने वालों के रूप में? अगर आप जीवन में हर चीज को एक उत्सव के रूप में लेंगे तो आप बिना गंभीर हुए जीवन में पूरी तरह शामिल होना सीख जाएंगे। दरअसल ज्यादातर लोगों के साथ दिक्कत यह है कि जिस चीज को वो बहुत महत्वपूर्ण समझते हैं उसे लेकर हद से ज्यादा गंभीर हो जाते हैं।
अगर उन्हें लगे कि वह चीज महत्वपूर्ण नहीं है तो फिर उसके प्रति बिल्कुल लापरवाह हो जाएंगे- उसमें जरूरी भागीदारी भी नहीं दिखाएंगे। जीवन का रहस्य यही है कि हर चीज को बिना गंभीरता के देखा जाए, लेकिन उसमें पूरी तरह से भाग लिया जाए- बिल्कुल एक खेल की तरह। अज्ञान मिटे, इस बात का प्रयत्न बहुत जरूरी है। आदमी बुराई को बुराई समझते हुए भी करता है, बार-बार करता है। यह एक समस्या है। छोटी-मोटी बुराई तो अनजाने में हो जाती है, किन्तु बड़ी बुराई कभी अनजाने में नहीं होती। बड़ी बुराई आदमी जानबूझ कर करता है। इस दुनिया में हर बड़ा पाप जानबूझ कर किया जा रहा है। आप रास्ते पर चल रहे हैं। पैरों के नीचे दबकर चींटी मर जाए तो यह अनजाने में हुआ पाप है। कि न्तु किसी का गला तो अनजाने में नहीं काटा जा सकता। उसे तो बहुत सोच- समझकर योजनाबद्ध ढंग से किया जा रहा है। हम जानते भी हैं कि बुराई क्यों कर रहे हैं- इस बात का उत्तर खोजा जाना चाहिए और शायद इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए ही दशहरा जैसे पर्व मनाये जाते हैं।
दशहरा शक्ति की साधना, कर्म एवं पूजा का भी पर्व होता है इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। आज दशहरा का पर्व मनाते हुए सबसे बड़ी जरूरत भीतर के रावण को जलाने की है। क्योंकि ईमानदार प्रयत्नों का सफर कैसे बढ़े आगे जब शुरू आत में ही लगने लगे कि जो काम मैं अब तक नहीं कर सका, भला दूसरों को भी हम कैसे करने दें? कितना बौना चिन्तन है आदमी के मन का कि मैं तो बुरा हूं ही पर दूसरा भी कोई अच्छा न बने। इस बौने चिन्तन के रावण को जलाना जरूरी है। भारतीय संस्कृति सदा से ही वीरता व शौर्य की समर्थक रही है।
प्रत्येक व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता का प्रादुर्भाव हो, इसी उद्देश्य से भी दशहरे का उत्सव मनाया जाता है। यदि कभी युद्ध अनिवार्य ही हो तब शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा ना कर उस पर हमला कर उसका पराभव करना ही कुशल राजनीति है। भगवान राम के समय से यह दिन विजय प्रस्थान का प्रतीक निश्चित है। भगवान राम ने रावण से युद्ध हेतु इसी दिन प्रस्थान किया था। मराठा रत्न शिवाजी ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था। भारतीय इतिहास में अनेक उदाहरण हैं जब हिन्दू राजा इस दिन विजय-प्रस्थान करते थे। आज पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भयावह रूप ले रही है। इस पर भी प्रश्न हो सकता है कि आदमी गंदगी बढ़ा रहा है जानबूझ कर या अनजाने में? यह निर्विवाद सत्य है कि अगर स्वच्छता की चेतना जाग जाए तो गंदगी हो नहीं सकती।
स्वच्छता की चेतना अगर नहीं है तो दुनिया की कोई भी नगरपालिका किसी नगर को साफ -सुथरा नहीं रख सकती। दशहरे से हमनें क्या सीखा? जरूरत है हमें स्वयं के पापों को धोने के साथ-साथ जन-जन के मनों को भी मांजने की है। जरूरत उन अंधेरी गलियों को बुहारने की है ताकि बाद में आने वाली पीढ़ी कभी अपने लक्ष्य से न भटक जाये। जरूरत है सत्य की तलाश शुरू करने की जहां न तर्क हो, न सन्देह हो, न जल्दबाजी हो, न ऊहापोह हो, न स्वार्थों का सौदा हो और न दिमागी बैसाखियों का सहारा हो। वहां हम स्वयं सत्य खोजें। मनुष्य मनुष्य को जोड़ें। दशहरा एक चुनौती बनना चाहिए उन लोगों के लिये जो अक र्मण्य, आलसी, निठल्ले, हताश, सत्वहीन बनकर सिर्फ सफलता की ऊंचाइयों के सपने देखते हैं पर अपनी दुर्बलताओं को मिटाकर नयी जीवनशैली की शुरूआत का संकल्प नहीं स्वीकारते। क्या वो सबक सीखेंगे?
ललित गर्ग
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)