74 साल बाद भी पुलिस तो नहीं बदली

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आजादी के 74 साल बाद भी देश की पुलिस नहीं बदली। उसका व्यवहार आज भी अंग्रेजों की पुलिस जैसा है। एक बार थाने पहुंच जाइए, सच्चाई सामने आ जाएगी। देश की पुलिसिंग और पुलिस की कार्यप्रणाली से आम आदमी ही नहीं सर्वोच्च न्यायालय भी चिंतित है। हाल में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने पुलिसिया अत्याचार और मानवाधिकार उल्लंघन पर चिंता जताई। एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि थानों में मानवाधिकारों का उल्लंघन सबसे ज्यादा खतरा है। सालों से हिरासत में मौत और प्रताड़ना आज भी जारी है। यहां तक कि विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को भी थर्ड डिग्री देने से नहीं बख्शा जाता। उन्होंने देश के पुलिस अधिकारियों को संवेदनशील बनने पर जोर दिया।

देश की पुलिस की कार्रवाई पर देश के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की टिप्पणी आने के साथ ही वाराणसी में यूपी पुलिस के एक सिपाही के बयान ने भी यूपी पुलिस के कामकाज पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। प्रयागराज के लालपुर थाना क्षेत्र में 31 जुलाई की रात पुष्कर नाथ द्विवेदी नाम के शख्स की गोली मारकर हत्या कर दी गई। पुष्कर पेशे से किसान थे। उनके बेटे जितेंद्र द्विवेदी बांदा पुलिस में बतौर सिपाही तैनात हैं। जितेंद्र ने पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि घटना वाले दिन पुलिस को छह किलोमीटर का सफर करने में तीन घंटे लगे। अगर पुलिस समय पर पहुंच जाती उनके पिता की जान बच सकती थी। उसका आरोप है कि उसके पिता को मारने की धमकी मिली थी। बांदा में ड्यूटी के दौरान उसने लालपुर के थानाध्यक्ष को सीयूजी नंबर पर फोन करके सूचना दी। उसके बाद थाने की एक दरोगा को कई बार टेलीफोन किया। लेकिन कोई रिस्पांस नहीं मिला। थाने से उसके गांव की छह किलोमीटर की दूरी तय करने में लालपुर पुलिस को तीन घंटे लगे। इस दौरान उसके पिता की हत्या कर दी गई। यदि पुलिस समय से पहुंच जाती तो उसके पिता परिवार के साथ होते।

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश और पुलिस के ही एक सिपाही की टिप्पणी देश की पुलिसिंग और उसकी कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करती है। पुलिस का रवैया कैसा है, यह बताती है। देश की पुलिस ब्रिटिश काल की व्यवस्था की देन है। देश आजाद हुआ किंतु ये पुरानी व्यवस्था वैसे ही जारी है। इसमें जितना बदलाव आना चाहिए था, वह नहीं हुआ। पुलिस आम आदमी की मदद के लिए होती हैं, यहां ऐसा नहीं है। एक पिक्चर का डॉयलॉग है− न पुलिस की दोस्ती अच्छी और न दुश्मनी। वह कहावत आज भी सही उतरती है। प्रायः पैसे के लिए ये अपराधी से जा मिलती है। लगभग एक साल पहले कानपुर के बिकरू कांड अभी हम भूले नहीं हैं। इसमें विभागीय कर्मचारियों की मिली भगत से विकास दूबे और उसके साथियों ने गिरफ्तार करने गए पुलिस दल के एक सीओ समेत आठ पुलिसकर्मियों को गोली से भूनकर मार डाला था।

पुलिस आम आदमी की मदद के लिए होनी चाहिए, दुख−दर्द की साथी। पर ये ऐसी नहीं है। एक बार इसके चंगुल में फंस जाइये फिर सब पता चल जाएगा। पुलिस की वर्दी पहनकर युवक अपने को सुपर पावर मानने लगता है। हीरो समझने लगता है। उल्टा सीधा करना अपना अधिकार मानता है। दिल्ली देश की राजधानी है। आप दूसरे प्रदेश के नंबर की गाड़ी लेकर चले जाइए। जगह-जगह पुलिस को भेंट पूजा करनी होगी। सड़कों पर पार्किंग कराने वालों से वह मिली है। आम तौर पर सब जगह ये ही हाल है। किसी दूसरे प्रदेश की टैक्सी या छह−सात सीटर गाड़ी लेकर कहीं जाकर देखिए। सब पता चल जाएगा। चौराहों पर तैनात वसूली करती पुलिस कहीं भी मिल जाएगी। थाने आई जांच रिपोर्ट, पासपोर्ट इंक्वायरी, सरकारी नौकरी के लिए चरित्र वेरिफीकेशन आदि कार्य के रेट फिक्स है। अपने साथ हुई घटना की रिपोर्ट दर्ज कराना आज भी सरल नहीं है।

कोरोना काल में पुलिस की छवि काफी सुधारी है। उसने लोगों की मदद की है। इसके बावजूद आज भी पुलिस हवालात में मौत होती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2017 में पुलिस हिरासत में 100 से ज्यादा लोगों की मौत हुई। इनमें से 58 लोग रिमांड पर नहीं थे, यानी उन्हें गिरफ्तार तो किया गया लेकिन अदालत में पेश नहीं किया गया। सिर्फ़ जबकि 42 व्यक्ति पुलिस या न्यायिक हिरासत में थे।

आज जरूरत है पुलिस को आजाद भारत के अनुकूल बनाने की। आम आदमी का मददगार बनाने की। हम प्रशिक्षण के नाम पर उसको शारीरिक रूप से मजबूत होने के लिए तैयार करते हैं। जरूरत है उसे आज के हालात के लिए ढालने की। नए युग के तकनीकि ज्ञान की। कम्युटर शिक्षा, साइबर अटैक से निपटने, नए दौर के अपराधियों से पूछताछ करना सिखाने की। आज भी थानों में पूछताछ के नाम पर थर्ड डिग्री का प्रयोग होता है। थानों में पट्टे से पिटाई के आज भी किस्से सुनने को मिल जाएंगे। डंडा परेड आज भी होती है। पुलिस सुधार के लिए आयोग बने। उनकी रिपोर्टें कबाड में जा चुकीं। इस ओर कुछ भी नहीं हुआ। पुलिस में राजनैतिक दखल आज भी जारी है। राजनैतिक संरक्षण प्राप्त बड़े बड़े से अपराधी वीआईपी की तरह घूमते हैं।

अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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