हम – निवाला – हम – प्याला जोड़ी

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अवध में नवाबों के राज में गाजीउद्दीन हैदर (1814-1827) के बाद बादशाहों और वजीरों की कई जोड़ियां बनीं, लेकिन कोई भी गाजीउद्दीन और आगामीर की जोड़ी जैसी अजब-गजब नहीं सिद्ध हुई। इनमें गाजीउद्दीन का ‘अजब’ यह कि वे गुस्साते तो आगामीर के पद का भी लिहाज न करते और उन पर ताबड़तोड़ थप्पड़-घूंसे बरसाने लगते।

एक बार तो उन्होंने एक बावर्ची की इस शिकायत पर भी उन्हें पीट डाला था कि ‘वजीर ने हुजूर के पराठे पकाने के लिए दिए जाने वाले घी की मात्रा एक चौथाई कर दी है।’ तब गाजीउद्दीन ने उन्हें झिड़ककर यह तक कह दिया था, ‘खुद तो सारी सल्तनत लूटे जाते हो और बावर्ची थोड़ा ज्यादा घी ले लेता है तो बर्दाश्त नहीं कर पाते।’ लेकिन आगामीर का ‘गजब’ भी कुछ कम न था। कई बार पिटने के बावजूद उन्होंने ‘उफ’ तक नहीं की, न ही वजारत छोड़ी। गाजीउद्दीन भी ‘सल्तनत की लूट’ के बावजूद उन्हें लंबे वक्त तक सहते रहे।

दोस्ती कोई ऐसी वैसी नहीं हम-निवाला-हम-प्याला थी। इसलिए उन्होंने गद्दी पर बैठते ही उनको वजीर बना दिया था। गोकि वह उनकी रग-रग से वाकिफ थे। बाद में अंग्रेज गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज के बहकावे में आकर उन्होंने खुद को ‘दिल्ली के दबदबे से आजाद अवध का स्वतंत्र बादशाह’ घोषित कर दिया तो कहते हैं कि आगामीर ही सबसे ज्यादा खुश हुए थे। यह सोचकर कि बेलगाम बादशाह की लगाम अब एकमात्र उन्हीं के हाथ रहेगी।

प्रसंगवश, मीर तकी तुर्कमानी के बेटे आगामीर का माता-पिता का दिया नाम सैयद मुहम्मद खां था। वजीर बने तो उन्हें मोतमउद्दौला मुख्तार-उल-मुल्क सैयद मुहम्मद खां बहादुर उर्फ आगामीर का खिताब मिला, जो बाद में आगामीर भर रह गया। इतिहासकार बताते हैं कि उन्होंने ऐसी विलक्षण बुद्धि पाई थी, जो सूबे का खजाना भरने की करामात में तो उनकी मदद करती ही थी, अपना घर भरने से भी मना नहीं करती थी।

अपनी वजारत के दौरान उन्होंने सूबे का खजाना इतना भर दिया था कि वह उन दिनों खस्ताहाल ईस्ट इंडिया कंपनी को बड़े-बड़े कर्ज दिया करते। इतना ही नहीं, उन्होंने लखनऊ में अपने नाम की एक ड्योढ़ी भी बनवाई थी, जो आज उसके एक मुहल्ले का नाम है। यह ड्योढ़ी बन रही थी तो उन्होंने एक इत्रफरोश से उसका सारा इत्र खरीदकर उसे गारे में मिलवाया और उसी से दीवारों का पलस्तर करवाया, ताकि दीवारें दूर-दूर तक खुशबू बिखेरती रहें। उन्होंने अपने नाम से एक सराय भी बनवाई थी।

‘नवाबी के जलवे’ नाम की किताब में लिखा है कि एक समय सूबे में आगामीर की मर्जी के बगैर पत्ता तक नहीं हिलता था और उनकी करामात की चहुंओर चर्चा होती थी। लेकिन एक बार बादशाह ने एक आदमी से खुश होकर उसे दरबार में नौकरी देनी चाही तो वह परेशान हो उठे। दरअसल, वह आदमी उनके कई भेद जानता था और बादशाह पर खोल सकता था। इसलिए उन्होंने पहले तो मामले को भरपूर टाला फिर कह दिया कि वह आदमी तो खुदा को प्यारा हो गया।

लेकिन एक दिन बादशाह सुबह की सैर पर गए तो वह आदमी उन्हें दिख गया। उन्होंने आगामीर से उसे बुलाने को कहा तो उन्होंने उनसे पूछा, ‘कैसे बुलाऊं हुजूर? उसे तो आप अपने चश्म-ए-गैब (अलौकिक दृष्टि) से देख रहे हैं। मैं गरीब ऐसा चश्म-ए-गैब कहां से लाऊं, जिससे रूहें देख सकूं?’

उस दिन तो खैर बात बन गई, लेकिन पानी सिर से ऊपर हो गया तो मजबूर बादशाह ने उन्हें बर्खास्त कर दिया। फिर भी वह नहीं सुधरे। लखनऊ के चौक में यह प्रचार कर धन उगाही करने लगे कि बादशाह उधर से ही नहर निकालने का मंसूबा बना रहे हैं। नहर निकलती तो वहां के बाशिंदे बेघर-बेदर हो जाते। इसलिए उन्होंने चांदी के सिक्कों से भरे तोड़े (थैले) आगामीर की नजर करने शुरू कर दिए। इस प्रार्थना के साथ कि जैसे भी बने, बादशाह का मंसूबा बदलवाएं। लेकिन वजारत की तनखाह से कई गुना यह रकम आगामीर को फली नहीं। बात बादशाह तक पहुंची तो उन्होंने खीझकर उन्हें सूबे से निर्वासित कर दिया। निर्वासन में ही कानपुर में उनका इंतकाल हो गया।

कृष्ण प्रताप सिंह
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और इतिहासकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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