सर्वप्रथम तथ्य़। प्रधानमंत्री मोदी अपने पद पर कोई 1925 दिन से है। इसलिए सौ दिनों को नए दमखम में बताना बेतुका है। ऐसे ही यह भी फालतू बात है कि दूसरे कार्यकाल से नरेंद्र मोदी ने अपनी विरासत को दुरूस्त करना प्रारंभ किया है। ये सौ दिन इससे पहले के 1825 दिनों का ही विस्तार है। इनमें ‘नयापन’ जांचना ज्यादा मतलब नहीं रखता।
संदेह नहीं कि नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल पर वैसा नहीं लिखा गया जैसा निर्मित और प्रस्तुत हुआ था। नोटबंदी के साथ उम्मीदें बिखरी तो विपक्ष व खासकर कांग्रेस के शौर ने शासन की कहानी को बहुत बदनाम बनाया। सन् 2014 का वह वक्त याद है जब भारत के 13वें प्रधानमंत्री के सौ दिन पूरे हुए तो हर पत्रकार, लेखक, आलोचक ने उनकी विरासत में अच्छे-खासे कसीदे काढ़े थे। इसलिए ध्यान रहे कि विरासत वही स्थाई होती है जिसकी कहानी लगातार एक सी दिलचस्पी बनाए रखें।
निसंदेह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वह शख्शियत है जो उस कथा, नैरेटिव से सत्ता में आए थे जिसकी जरूरत लोगों को अर्से से थी। उनसे हमने अच्छी बाते सुनी। उनके जरिए हमने जाना कि हम क्या हैं और क्या होने वाले हैं। उससे वह विश्वास, वह भरोसा बना जिससे जादू था, जोश था और ताजगी थी। मोदी के विमर्श में, नैरेटिव के कोर में लोगों को प्रगति का विश्वास था, अच्छे दिनों की संभावनाएं थी बेशर्ते कि उन्हे भरपूर मौका मिले और प्रधान सेवक के जरिए भारत को सही दिशा और सुविधाएं मिलती जाए।
वह विश्वास नरेंद्र मोदी की हर मसले पर, उनकी हर कही बात से पका जिसमें कभी आर्थिकी की या कभी जलवायु परिवर्तन या समाज दशा पर थी। मोदी की विकास दृष्टि, उनका विजन पुर्ववर्ती डा मनमोहन सिंह और उनकी पार्टी के अटलबिहारी वाजपेयी की भाव-भंगिमा लिए हुए नहीं था। मोदी ने अलग ही नयेपन से धमक बनाई जो उनके आत्मविश्वास से लोगों में अपने आप पैंठती गई।
तब उम्मीदे सच्चा आशावाद लिए हुए थी। तभी सितंबर 2014 में जब मोदी के पहले सौ दिन पूरे हुए तो सभी ने किसी तरह के साहसी, लैडमार्क फैसले न होने के बावजूद उस शुरूआत, उनके उद्देश्यों और उनके ऑईडिया ऑफ इंडिया की वाह की। सबने उम्मीद जताई कि यह शुरूआत 1820 दिन बाद भारत की अच्छी नई कहानी लिए हुए होगी। लेकिन हुआ क्या? पहला कार्यकाल समाप्त होते-होते नोटबंदी, जीएसटी, मीडिया से दूरी और रेडियों, रैलियों, घटनाओं के हो-हल्ले में कहानी का कथानक खो गया। सबकुछ उबाऊ हो गया। वायदे ऑप्टिक्स में गडबडाएं और जनता की उम्मीद, उसकी आशाएं निराशा और बेरूखी में बदली।
अचानक चुनाव से ऐन पहले पुलवामा और फिर बालाकोट से कहानी में मोड़ आया। ऩई कहानी लिखी जाने लगी। वह पुरानी कहानी विस्मृत हुई जो 1820 दिन पहले शुरू हुई थी।
सो उस मोड़ के जनादेश के सौ दिन पूरे हो चुके हैं। ये सौ दिन कितनी उपलब्धियों भरे रहे, इस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। बहुत कम लोग हैं जिन्होंने सौ दिनों की खामियों के बारे में बताते हुए सरकार को चेताया हो। हर कोई अपने को भ्रम और अनिश्चितता की स्थितियों से घिरा हुआ पाते हुए भी मोदी के हर कदम को अच्छा बताते हुए उसकी तारीफ कर रहा हैं।
जब समर्थन, शांति और खुशहाली की तस्वीर चौतरफा दिखे तो आप एक दुविधा में पड़ जाते हैं। एक पत्रकार के नाते हमसे यह अपेक्षा की ही जाती है कि लोग क्या महसूस करते हैं, क्या सोचते हैं, इस बारे में हम सच बताएं। उस नाते आज यह हकीकत है, मतलब इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि लोग सिर्फ और सिर्फ मोदी को ही चाहते हैं।
सवाल है क्या इन लोगों को देश की अर्थव्यवस्था की फिक्र है? नहीं है। क्या उन्हें अपने बच्चों के बेरोजगार होने की चिंता है? नहीं है। क्या उन्हें इस बात की चिंता है कि पाकिस्तान और भारत में जंग हो सकती है और हम युद्ध की आग में झुलस सकते है? नहीं है। उलटे यहां पर जरूर मोदी की अंधभक्ति में कई लोगों को लग रहा है कि भारत पाकिस्तान को मिटा कर रख देगा और यह काम सिर्फ नरेंद्र मोदी ही कर सकते हैं।
विदेशी मामलों की एक पत्रिका के संपादक गिडियॉन रोज ने हाल के अंक में ‘ऑटोकक्रेसी नाउ’ शीर्षक से लिखे लेख में लिखा है- लोगों को अपने में शामिल करके उनके नजरिए से आप जो चाहे राजनीतिक कथा गढ़ सकते हैं और फिर उसे ऐसे पेश कर सकते हैं जैसे उनसे किए वादों पर पूरी तरह से अमल हो रहा है।‘
जो सौ दिन गुजरे हैं उनमें प्रधानमंत्री ने अपनी पसंद-नापसंद और मन से अपना जहाज चलाया है उसके भीतर सवार लोग अंदर के हो हल्ले से मजे में है। लोग खुश हैं कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म है। अयोध्या के राम मंदिर का सपना पूरा होता लगता है। लोग चांद पर पहले ही पहुंच चुके हैं। उपलब्धियों का खुमार चढ़ा हुआ है। लोगों को जो सपने दिखाए थे, वे भले हवा हुए पड़े हो लेकिन शिकायत की जगह संतोष है।
हां, बहुत लोग मान रहे है कि ऐसी हर बात जो कभी समस्या हुआ करती थी, उसका नामोनिशान मिटा दिया गया है। ऐसा हर लक्ष्य जिसके बारे में लगता था कि इसे कभी हासिल नहीं किया जा सकता, उसे हासिल कर लिया गया है। और इतना ही नहीं, जिन मुद्दों पर पहले खुल कर बातचीत और बहस होती रहती थी, उस पर बहस की जरूरत ही नहीं रही। इसलिए नरेंद्र मोदी इस बात की परवाह नहीं करते है कि पत्रकार, मीडिया या नागरिक समाज क्या कहता है या कहेगा। जाहिर है प्रधानमंत्री और उनकी सरकार अक्खड़पन से लबालब है। एक शब्द है शुत्जपाह। मतलब आत्मविश्वास का अतिरेक, जिसे ढिठाई कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। यही मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के सौ दिन का सत्व है। फिर एक शब्द है उदासी और लापरवाही। और यह इन सौ दिनों में देश की अर्थव्यवस्था की असल हालत का प्रतीक है।
शक नहीं कि मोदी के ये सौ दिन उनके पहले कार्यकाल से एकदम अलग हैं। आज पहले की तुलना में ज्यादा आत्मविश्वास है, पहले के मुकाबले ज्यादा प्रतिबद्धता है, लेकिन साथ ही सरकार के ढीठपन की भी इंतहा है। इस ढीठपन में ही चौपट होती अर्थव्यवस्था की चिंता नहीं है। नौजवानों की बेरोजगारी गंभीर समस्या नहीं है और न ही झूठे नैरेटिव बनाने में कोई कमी है। अनुच्छेद 370 हटाने के बाद से घाटी पूरी तरह से बंद है और पाकिस्तान के साथ रिश्ते बेहद तनावपूर्ण हैं तब भी फिक्र की बात नहीं। मोदीजी है तो सब ठिक होगा। उस नाते जो विश्वास, विचार, जोश है वह एक तरह का खुमार है। आत्मविश्वास का अतिरेक है। शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि अनुच्छेद-370 खत्म कर रहे है तो आगे क्या होगा, यह बिना रोडमैंप के जाहिर होगा। एनआरसी का रजिस्टर बन गया है तो आगे उससे क्या होगा यह भी बिना रोडमैप के! खुमारी है कि कश्मीर घाटी में सब ठिक है लेकिन लगातार तालेबंदी में लोगों का होना क्या सब ठिक है? इसलिए सौ दिन दुस्साहसी फैसलों के तो खुमारी और बेसुधी के भी है।
श्रुति व्यास
लेखिक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं