सुहावने तो नहीं हैं पोल के ढोल पानी तक मयस्सर नहीं

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हर नेता को कुर्सी चाहिए, वो भी सबसे बड़ी? लिहाजा चुनाव के दौरान उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता। संवेदना बची नहीं, लिहाजा, किसी के दुख-दर्द से क्या लेना-देना? चुनाव के अलावा कोई मसला फिलहाल मीडिया को भी दिखाई नहीं दे रहा है। इस पर हैरानी जताई जाए या अफसोस। समझ में नहीं आता। भारत के चुनावों पर अरबों-खरबों खर्च हो रहे हैं। लाख टके का सवाल तो यही है कि क्या इतना महंगा चुनाव झेलने लायक ये देश है? आर्थिक मंदी सिर पर खड़ी है और हम तबाही का जश्न मना रहे हैं? मस्त राजनेता ये भी नहीं देख रहे हैं कि देश की 50 करोड़ से ज्यादा की आबादी के सामने पेट भरने की नहीं बल्कि हलक में दो घूंट पानी डालने की समस्या सबसे बड़ी खड़ी हो गई है। देश का कोई राज्य ऐसा नहीं बचा है जहां कहीं ना कहीं अप्रैल के दूसरे हफ्ते से ही पानी संकट ना हो। बच्चे, बूढ़े, जवान अगर गला तर करने को तरस रहे हों तो फिर ऐसे महंगे चुनाव के क्या मायने? ऐसे लोक तंत्र का क्या अर्थ? अगर मोदी के राज व राज्य में भी महिलाओं को एक बाल्टी पानी के लिए रतजगा करना पड़ता हो तो फिर कैसे मान लिया जाए कि मोदी बेहद ताक तवर हैं? कभी पानी की चिंता भी करिए हुजूर, इसके बिना जीवन नहीं है। जीवन ही नहीं बचेगा तो ये तामझाम किस काम का?

ये कहां का न्याय

चुनाव आयोग ने बता दिया है कि चंद ईवीएम वोट वीवीपैट से मैच कराने की वजह से लोकसभा चुनाव के नतीजों में देरी होगी। सुप्रीम कोट ने भी विपक्ष की नहीं सुनी। यानी सुप्रीम कोर्ट ने भी अप्रत्यक्ष रूप से मान लिया है कि ईवीएम में कोई खोट नहीं। अगर खोट नहीं तो फिर हर सीट की पांच मशीनों का वीवीपैट से मिलान कराने की जरूरत ही क्या? ईवीएम अगर सही हैं तो फिर ये राना पिटना क्यों मचा है? अगर माना जा रहा है कि ईवीएम में सरकारें गड़बड़ी करा सकती हैं तो फिर वीवीपैट से सभी वोटों का मिलान कराने में क्या हर्ज था? आयोग को ज्यादा लोग लगाने पड़ते, खर्चा और होता, समय ज्यादा लगता। इसमें दिक्कत क्या थी? जहां इतना खर्च हो रहा है तो और हो जाता, समय ज्यादा लगता तो कौन सा पहाड़ टूट जाता? मियाद की तारीख से पहले तो नतीजे आ ही जाते। अगर सी सौ फीसद का मिलान हो जाता तो हमेशा-हमेशा के लिए ईवीएम पर शक का सिलसिला खत्म होता लेकिन लोकतंत्र पर भरोसा बढ़ाने का एक सुनहरी मौका आयोग ने भी हाथ से गंवा दिया और सुप्रीम कोर्ट ने भी। अगर आम चुनाव की पवित्रता व साख दांव पर है तो विपक्ष की मंशा के मुताबिक 50 फीसद वीवीपैट वोटों की गिनती कराने में क्या हर्ज था? कम से कम सुप्रीम कोर्ट से तो ये उम्मीद नहीं थी?

नेता मजबूत हो या देश

नेरन्द्र मोदी खुद को मजबूत नेता बताने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते। पांच साल से देश में यही चल रहा है और मीडिया के साहरे जबरन चलाया जा रहा है कि नेता मजबूत होना चाहिए या देश? देश सुरक्षित रहना चाहिए या मजबूत? मजबूत देश सुरक्षित होता है या कमजोर ? मोदी अगर मजबूत हैं और उन्हें मजबूत दिखाने के लिए खजाना पांच साल से लुटाया जा रहा है तो क्या देश मजबूत है? क्या देश सुरक्षित है? कौन गारंटी के साथ कह सकता है कि देश की माली हालत नहीं बिगड़ रही है? कौन गारंटी के साथ कह सकता है कि देश सुरक्षित है? अगर देश सुरक्षित है तो फिर राष्ट्रवाद का नारा बुलंद क्यों किया जा रहा है? मोदी के पांच साल बता रहे हैं कि स्थायित्व के मामले हर क्षेत्र में भारत पिछड़ा है। तो फिर सवाल वही कि ऐसे मजबूत नेता का क्या कीजे जो खुद तो मजबूत हो लेकिन देश कमजोर? हर उस देश पर निगाह डालिए जहां के नेता मोदी के नक्शेकदम पर है। तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप अर्दोवान के सहारे खुद को मजबूत बनाते और बताते गए, लेकिन ना तो उनके कहे मुताबिक तुर्की का दबदबा हुआ ना ये देश मजबूत रह पाया। हंगरी, चीन, रूस यहां तक की अमेरिका के सर्वमान्य नेताओं का भी यही हाल है। खुद मजबूत और देश खस्ताहाल। आखिर कब सबक सीखेगा ये देश?

डीपीएस पंवार

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