सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि देश मुश्किल दौर से गुजर रहा है, शांति की कोशिश होनी चाहिए। हिंसा थमने पर सुनवाई होगी। यह संदेश सबके लिए है। सहमतियां- असहमतियां अपनी जगह हैं पर अस्थिरता के वातावरण में प्राथमिकता शांति की होनी चाहिए। विरोधाभास ही तो है सबसे बड़ी अदालत चिंतित है, पिछले कई महीनों से जारी गतिरोध को लेकर देश के कई हिस्सों में कानून-व्यवस्था की समस्या आये दिन पैदा हो जाती है और इससे आम जन-जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है लेकिन सियासतदानों को इससे कोई मतलब नहीं है ऐसा अब तक के उनके रवैये से मालूम नहीं पड़ता। उन्हें तो बस अपने सियासी लाभ की फिक्र है और इसके लिए फिर कोई सीमा तय नहीं है। वोट बैंक की राजनीति ने विश्वविद्यालय परिसरों को राजनीति का अखाड़ा बना दिया है। बच्चों की पढ़ाई बर्बाद हो रही है तो उसकी फिक्र नहीं बस उनका मकसद पूरा होना चाहिए। खासतौर पर जेएनयू हिंसा और उसके कारणों का सियासी विस्तार इसी तरफ संकेत करता है। फीस वृद्धि के विरोध में आक्रोश समझ में आता है। लेकिन परीक्षा के लिए हो रहे पंजीकरण को रोकने का प्रयास हो और वो हिंसा में बदल जाए, यह किस कोटि की छात्र राजनीति है?
इसके अलावा आजादी के नाम पर ऐसी मांगों पर जोर देना, जो राष्ट्रीय हितों के ठीक विपरीत हैं, कोई व्यवस्था इन स्थितियों का भला कैसे स्वागत कर सकती है? ऐसे हालात के परिप्रेक्ष्य में जब कहा जाता है कि संसद में हारे हुए लोगों की शह पर यह खीझ सड़कों पर उतारी जा रही है, जिसमें छात्र मोहरा बन गए हैं तब इस सियासी आरोप में भी दम लगता है। जैसे-जैसे लड़ाई आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे असल मुद्दा पीछे छूटता जा रहा है। नागरिकता कानून को लेकर शुरू हुआ कश्मीर के उन सवालों से जुड़ गया है, जिसका समाधान देश की संसद से हो चुका है। कश्मीर अब दो केन्द्र शासित राज्य के रूप में सामने है। जम्मू-कश्मीर में दिल्ली की तर्ज पर विधानसभा की व्यवस्था है लेकिन असल बॉस लेटिनेंट गवर्नर होता है और दूसरा हिस्सा लद्दाख, सीधे केन्द्र सरकार के अधीन है। अनुच्छेद 370 और 35-ए इतिहास हो चुका है। स्कूल-कॉलेज और बाजार खुले हुए हैं। सरकारी कार्यालयों में कामकाज पहले की तरह रफ्तार में है। चहल-पहल बहाल है। पत्थरबाजी में कमी आई है। पाकिस्तान की तरफ से घुसपैठ की चुनौतियों में भी कमी हुई है। लेकिन जेएनयू जैसी जगहों से इसकी आजादी को लेकर नारे उछल रहे हैं।
हालांकि गुरूवार को कश्मीर दौरे पर कई मुल्कों के राजदूतों का प्रतिनिधिमण्डल गया था। उन्हे लोगों से बदलाव के प्रति खुशी जताने वाली प्रतिक्रियाएं सुनने को मिलीं। इंटरनेट को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी आंशिक बहाली के निर्देश केन्द्र सरकार को दिए हैं। तो इस तरह वक्त बीतने के साथ आंदोलन के औचित्य पर भी सवाल उठने लगा है। जो व्यवस्था में होते हैं उनके लिए यह बड़ी चुनौती होती है। अभी एक दिन पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी भारत बंद के दिन राज्य में कांग्रेस-वाम दलों की तरफ से हुई हिंसा को लेकर गहरी नाराजगी व्यक्त की थी। गुस्से का अंदाजा लगाया जा सकता है कि 13 जनवरी को कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता में विपक्षी दलों की बैठक होनी है लेकिन ममता बनर्जी ने ना जाने का फैसला किया है। जो कानून-व्यवस्था का सीधा जवाबदेह होता है उसकी चिंता लाजिमी है लेकिन वास्तव में जवाबदेह वो भी होता है जो सीधे जवाबदेह नहीं होता। ऐसा इसलिए कि अस्थिरता का प्रभाव तो उसे भी झेलना पड़ता है। यह समझने की जरूरत सभी को है। बात सलीके से रखी जाए यह किसी भी सभ्य समाज की पहली जरूरत है। यदि यही खतरे में डाल दी जाए तो अंदाजा लगाया जा सकता है। सबसे बड़ी अदालत की चिंता यही है।सुप्रीम कोर्ट की चिंता