26 अप्रैल , 1984 को पटना में जन्मीं युवा कथाकार, चित्रकार सविता पांडेय का पहला कहानी संग्रह ‘गुलाबी लड़कियां’ शीर्षक से नवजागरण प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इससे पूर्व आपकी कहानियां हंस, कथादेश जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। अनेक कहानियां विभिन्न कहानी प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत भी हुई हैं। इस संग्रह में 13 कहानियां संग्रहीत हैं जिनके शीर्षक हैं – ‘फैशनिस्टा’, ‘सुनो! कोई है’.., ‘लाइफ बोले तो’, ‘मकड़जाल, हंसी और नींद’, ‘गुलाबी लड़कियां’, ‘दुन्नियां’, ‘चांदनी के फूलों सा भात’, ‘भागे हुए लोग’, ‘लेने आना फूल’, ‘मुकुति जनम मोहे नाही’, ‘गली-गली सिम-सिम’, ‘साबुन की बट्टी’, ‘कृष्णा तुम गाओ।’ यह संग्रह उन्होंने आर्या-मान्या और बेटियों को इस संदेश के साथ समर्पित किया है- रचो अपनी सुंदर दुनिया। इस सुंदर दुनिया को रचने का प्रयास संग्रह की लगभग सभी कहानियों में सविता पांडेय द्वारा किया गया है। वरिष्ठ साहित्कार, स्तम्भकार निर्मल गुप्त के शब्दों में-
‘सविता पांडेय के पास कहानी कहने का नया अंदाज है। कहानी पढ़ते हुए उनकी भाषा बरतने का सलीका बार-बार हतप्रभ करता है। उनके कहने में ताजा दूध की अदभुत गमक है।’
‘प्रस्तावना’ के अंतर्गत लेखिका स्वयं स्वीकार करती है–कहानियां! हमारी अनंत अभिव्यक्तियों का विस्तार है। अपनी-अपनी कहते-सुनते हम कह जाते हैं जाने कितनी ही कहानियां। गुनगुनी बतकहियों से लगायत संवेदनाओं की गहरी पड़ताल तक पसरी है कहानियां।’
सविता पांडेय की कहानियों में एक ओर जहां इंटरनेट का मकड़जाल है तो प्रेम और स्वतंत्रता की तलाश करती स्त्री भी दिखायी देती है। वर्तमान समय की समस्याएं, संवेदनाएं और उन सबसे बढ़कर अस्मिता की खोज इन कहानियों की विशेषता है। कहानीकार ने विषयों को सहज ढंग से उठाया है और अन्त तक निर्वाह भी किया है। संग्रहीत कहानियों में एक तथ्य उभरा है यहां स्त्रियां अपनी संपूर्ण ऊर्जा के साथ परिस्थितियों से जूझती दिखायी देती हैं। पहली कहानी है ‘फैशनिस्टा’। कहानी का प्रारंभ होता है-
‘फैशनिस्टा ! मेरे दोस्त-यार, जान-पहचान वाले और चाहने वाले मुझे यही कहते हैं। फैशन और मॉडर्निटी मेरी जिद है , जुनून है। जीवन है, सौंदर्य है। जिस्मफरोशी और फैशनपरस्ती के जो मायने तुमने मुझे सिखलाये हैं उन्हें मैं इस अंदाज में पेश करना चाहती कि तुम सिर धुनते रह जाओ।’
और कहानी के अंत में नायिका नायक को सिर धुनने पर विवश कर देती है और नशे की हालत में कहती रही– ‘जानेमन! बदलो कि दुनिया बदल रही है। बदल रहे हैं इसके नियम और कानून…। एक ही जीवन में मानों सब कुछ…..शुद्ध है केवल हमारी, तुम्हारी सबकी जिजीविषा…। मानवीय जिजीविषा।’
यह मानवीय जिजीविषा अगली कहानी ‘सुनो! कोई है’ में देखने को मिलता है जब मनोरमा उम्र के चौथे पड़ाव में मनचाही जिंदगी को जीती है। वहीं ‘लाइफ बोले तो’ में शायद तुम्हें याद हो, खामोशी की भी एक आवाज होती है।’ ‘लाइफ इज अ कमिटमेंट’, ‘दो दिन सिर्फ दो दिन नहीं होते’, ‘कला अपर्याप्तता के विरुद्ध विद्रोह है।’ उपशीर्षकों के माध्यम से जीवन को समझने का प्रयास किया गया है। विभिन्न कोणों से।
‘मकड़जाल, हंसी और नींद’ कहानी की भाषा कहानीकार की कलात्मकता को दिखाती है–
‘मुझे जानवर नहीं बनना। मुझे मेरी हंसी और नींद बचाये रखनी है। मैं भी चीखा और मकड़जाल की मकड़ी को फल काटने वाले चाकू से मार डाला। एक गंवई मजदूर से हाई प्रोफाइल प्रास्टटूट और हत्यारे बन जाने का सफर तय कर मैं वहां से भाग निकला। ‘गुलाबी लड़कियां’ संग्रह की शीर्षक कहानी है। कन्या भ्रूण हत्या का वीभत्स रूप देखने को मिलता है जहां एक ग्लानि का अहसास मां के साथ चिपक जाना है। ‘ टुन्नियां’ कहानी भी स्त्री जीवन की त्रासदी का एक रूप दिखाती है। ‘चांदनी के फूलों सा भात’, लेते आना फूल में कोमल भावनाओं के कुचलने और सहेजने की कोशिश दिखाई देती है तो ‘मुकुति जनम मोहे नाही’, में अनेक बेड़ियां, श्रृंखलाएं टूटती दिखाई देती है। कहानी का अन्त होता है–
‘दादी! मां! दुनिया भर के लोगों! सुनों! हमारे धर्म की सीमा हमारा व्यक्तिगत परिवार नहीं। ‘पृथ्वी परिवार’ है। हमारी परिकल्पना अखिल ब्रह्माण्ड तक विस्तृत है। नेलपाॅलिश लगी कप प्लेटों की पेंदियों में नहीं। मेरी आखें मुंदती जा रही थीं। अपनी बेटी की तरह आँखें मूंदे मैं किसी शाश्वत और शुद्ध नींद में जा रही थी। मेरा नया जन्म हो रहा था। धर्म-अधर्म की परिभाषाएं बदलता! नहीं ! नहीं ! मैं तो अब जाग रही थी! जने कब की सोई! ‘गली-गली सिम-सिम’ एक जादुई कहानी है। जहां सविता पांडेय जिंदगी के भ्रमजाल से ऊबी पूर्णिमा के जीवन में उल्लास की तलाश और बेचैनी चित्रित करती हैं। संग्रह की अंतिम कहानी से पहले की कहानी है। ‘साबुन की बट्टी। मासूम ख्वाहिश की कहानी है। यहा जहां प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए साबुन की बट्टी का सपना बुनता है। वहीं ‘कृष्णा तुम गाओ’ में कलात्मकता द्रष्टव्य है —
देर रात लौटते पति का इंतजार करते कृष्णा आंगन में ही सो गयी। उसके नाक का लौंग चंद्रमा की रोशनी में चमक रहा था। आँगन में धीरे-धीरे झड़ रहे थे हरसिंगार के फूल। सविता पांडेय की कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं अब ‘गुलाबी लड़कियां’ शीर्षक से एक स्थान पर एकत्रित है। विभिन्न मनोदशाओं का चित्रण करने वाली ये कहानियां सामाजिक विमर्शों के नए चेहरे को पाठकों के सामने लाने में समर्थ हैं।
कहानीकार की भाषा समय, पात्र और परिस्थिति के अनुकूल है। आकर्षक आवरण पृष्ठ और सुंदर छपाई के लिए नवजागरण प्रकाशन को बधाई। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि यह कहानी संग्रह सविता पांडेय को यथेष्ट यश-कीर्ति प्रदान करेगा।
डा0 अमिता दुबे,
संपादक
उ0प्र0 हिन्दी संस्थान
6, महात्मा गांधी मार्ग,
हजरत गंज, लखनऊ- 226001
कृतिकार: सविता पाण्डेय
प्रकाशक: नवजागरण प्रकाशन
109, प्रथम तल, मनीष मार्किट
सै0-11, द्वारका नई दिल्ली-110075
प्रथम संस्करण: 2018
मूल्य: 200/-