सबके लिए एक-जैसा कानून

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सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक ताजा फैसले में भारत की अब तक की सभी सरकारों की मरम्मत कर दी है। उसने कहा है कि संविधान की धारा 44 में सारे देश के लिए एक-जैसी नागरिक संहिता बनाने का जो संकल्प था, उसे आज तक किसी भी सरकार ने पूरा क्यों नहीं किया है।

उसका जो कारण मुझे समझ में आया है, वह यह है कि कोई भी सरकार घर बैठे मुसीबत मोल नहीं लेना चाहती। वह सांपों के पिटारे में हाथ नहीं डालना चाहती। सबके लिए एक-जैसा कानून तो सैकड़ों मामलों में बना ही हुआ है लेकिन शादी-ब्याह, संपत्ति का बंटावारा, तलाक, बहुविवाह, मैत्री-सहवास आदि कुछ मामले ऐसे हैं, जिन्हें धर्मों से जोड़ दिया गया है। उनमें यदि कोई भी सुधार आप करेंगे तो आपके खिलाफ सारे धर्मध्वजी एकजुट हो जाएंगे और देश में बगावत फैला देंगे।

जब 1956 में हिंदू कोड बिल बना था तो हिंदुत्ववादी संगठनों ने उसका विरोध किया था। अब जैसे ही एक-जैसे नागरिक कानून की बात होती है, हमारे इस्लामी, पारसी, यहूदी, सिख और ईसाई धर्मध्वजी आपत्ति करने लगते हैं। हमारे नेताओं का आध्यात्मिक और नैतिक स्तर इतना ऊंचा नहीं है कि उनकी सर्वहितकारी बातों को भी वे लोगों के गले उतार सकें। वरना वे सभी धर्मों के लोगों को विश्वास दिला सकते हैं कि नया कानून उनके धर्म की मूल भावना को बिल्कुल चोट नहीं पहुंचाएगा। वह हिंदुओं को निकाह पढ़ने या मुसलमानों को फेरे पड़ने या ईसाइयों और यहूदियों को वेदपाठ करने के लिए मजबूर कतई नहीं करेगा। उन्हें विवाह जिस पद्धति से करना है, करें।

पांच हजार साल पुरानी अपनी धार्मिक पद्धति को अपनाना है तो जरुर अपनाएं लेकिन सैकड़ों-हजारों साल पुराने घिसे-पिटे कानूनों को आंख मींचकर मानने की क्या तुक है ? कानून तो मनुष्यों ने बनाए हैं। वे देश-काल के मुताबिक बनते हैं, बदलते हैं। आज भी दुनिया के संविधानों में कितने संशोधन होते रहते हैं। आज बहुपत्नी या बहुपति-प्रथा, दहेज, तीन तलाक, संपत्ति पर सिर्फ पुत्र का अधिकार, बाल विवाह, विधवा विवाह निषेध, सती प्रथा, मामा-भानजी विवाह जैसी गई बीती, अनैतिक और अव्यवहारिक कुप्रथाओं को मानना जरुरी क्यों है ?

देश के समाज-सुधारकों को अपने-अपने क्षेत्र में जबर्दस्त आंदोलन चलाने चाहिए और हिंदू कोड बिल, मुस्लिम व्यक्तिगत कानून और केनन लाॅ जैसे धार्मिक कानूनों के स्थान पर सारे देश के नागरिकों के लिए एक-जैसा कानून सरकार को प्रस्तावित करना चाहिए। उस प्रस्तावित समान नागरिक संहिता पर साल-छह माह तक खुली बहस होनी चाहिए और फिर संसद उसे सर्वसम्मति से पारित करे। वह अन्य देशों के लिए अनुकरणीय बन जाए, ऐसी पहल भारत को करनी चाहिए।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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