कहां गई संवेदना, कहां गया सम्मान,
अपने में जब जी रहे, पाल रहे अभिमान।
सबसे आगे मैं रहूं, औरों को पीछे छोड़,
सबसे ऊपर मैं दिखूं, बाकी की ग्रीवा मोड।
दुर्गण औरों में भरे, सद्गुरु मुझ में सारे,
औरों का क्या सोचना, बस मैं ही रहूं किनारे।
पर! सब ही जब अवनत होंवे होगा क्रंदन चहूं ओर,
तुम कैसे जी पाओंगे, तब बन के सिरमौर।
हर दिशा दिखेगी लाचारी, हर ओर भूख, अनबुझी प्यास,
हर ओर सिसकती तरुणाई, हर ओर छूटती थकी श्वास।
तब! क्या सुख देगी माया-काया, व क्या सुख देगा राज पाठ,
क्या सुख देगा वाहन व्यापार, और क्या सुख देगा ठाठ बाठ।
तुम! निर्जन वन के वृक्ष लगोगे, एकाकी और सखा विहीन,
कौन मिलेगा ऐसा जिससे, फिर पाओगे तुम कुछ छीन।
फिर! हो जाओ ना सहज सरल कुछ मीठे से कुछ नम्र विनीत,
कुछ भीगे-भीगे संवरे से, कुछ महके से कुछ सौम्य पुनीत।
सबको स्वयं सरीखा समझें, सबको थोड़ा जीने दें,
सबको थोड़ा संबल देंवे, सबको उत्कर्ष रस पीने दें।
सतीश ‘सरल’