वोडाफोन से जुड़ी है आपकी भी जिंदगी

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वोडाफोन आइडिया दिवालिया होने की ओर बढ़ रही है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या सरकार इस कंपनी को बचाएगी? मान लें कि वह कंपनी को बचाने का फैसला करती भी है तो क्या एक राहत पैकेज से 1.8 लाख करोड़ के कर्ज तले दबी वोडाफोन आइडिया को बचाना संभव होगा। आखिर इसे हर महीने हजारों करोड़ रुपये का घाटा हो रहा है और प्रीमियम ग्राहक भी कंपनी का साथ छोड़ रहे हैं?

कंपनी को क्यों बचाना चाहिए
अगर वोडाफोन आइडिया डूबती है तो सबसे बड़ा नुकसान सरकार को होगा। अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस कम्युनिकेशंस और एयरसेल जब डूबीं तो सरकार उनसे बहुत कम बकाया वसूल कर पाई। वोडाफोन आइडिया पर सरकार का स्पेक्ट्रम का करीब 96 हजार करोड़ रुपये बकाया है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उस पर एजीआर के मद में देनदारी 61 हजार करोड़ रुपये हो गई है। सरकारी बैंकों को भी उससे करीब 23 हजार करोड़ वसूलने हैं। अगर इसमें बकाया रकम का ब्याज भी जोड़ दिया जाए तो सरकार को कंपनी के डूबने से 2 लाख करोड़ रुपये तक का जबरदस्त नुकसान हो सकता है।

इस मोड़ तक कैसे पहुंची कंपनी
अगर केंद्र कंपनी को बचाने के लिए नया पैकेज लाता है तो टेलिकॉम उद्योग के लिए 2017 के बाद ऐसी तीसरी राहत होगी। सितंबर 2016 में मुकेश अंबानी के टेलिकॉम क्षेत्र में कदम रखने और प्राइसिंग वॉर शुरू करने के बाद से वोडाफोन आइडिया की कारोबारी और वित्तीय हालत खराब होती गई। अंबानी की कंपनी ने वॉयस कॉल फ्री कर दिया और उसने डेटा भी काफी सस्ता किया था। इससे तब भारती एयरटेल, वोडाफोन इंडिया और आइडिया सेल्युलर को काफी नुकसान हुआ, जिन्हें 75 फीसदी आमदनी वॉयस कॉल बिजनेस से हो रही थी। कारोबारी दबाव बढ़ने के बाद 2018 में वोडाफोन इंडिया और आइडिया का विलय हुआ।

मुकेश अंबानी की जियो सिर्फ 4जी सेवाएं दे रही थी। उसने डेटा और कंटेंट कंजम्पशन से कमाई पर फोकस किया। वहीं, दूसरी कंपनियों का बिजनेस मॉडल वॉयस और डेटा टैरिफ के जरिये ग्राहकों से अधिक से अधिक आमदनी हासिल करने पर आधारित था। इन कंपनियों ने विकसित देशों में डेटा, स्ट्रिंग और ओटीटी सर्विसेज के बढ़ते ट्रेंड की अनदेखी की, जबकि जियो ने इसी पर ध्यान देकर अपना बिजनेस बढ़ाया।

नीतियों पर सवाल
जियो के आक्रामक रुख ने पहले तो सुनील मित्तल की भारती एयरटेल को भी हिला दिया था, लेकिन वह कंपनी को मुश्किल दौर से निकालने में कामयाब रहे। लेकिन आदित्य बिड़ला ग्रुप और वोडाफोन ग्रुप ऐसा कमाल नहीं कर पाया और वोडाफोन आइडिया फिसलती गई, पीछे छूटती गई। इसके लिए कंपनी की खराब बिजनेस रणनीति तो जिम्मेदार है ही, लेकिन टेलिकॉम विभाग ने भी गलतियां कीं। जब जमी-जमाई कंपनियां तेजी से फिसलन की राह पर हों, विभाग को लागत से कम कीमत पर सेवाएं देने के ट्रेंड पर रोक लगानी चाहिए थी। सरकार की गलत नीतियों की बीएसएनएल और एमटीएनएल को क्या कीमत चुकानी पड़ी, यह सच भी किसी से छिपा नहीं है।

आपको क्यों फिक्रमंद होना चाहिए
वोडाफोन और आइडिया का जब मर्जर हुआ, तब उसके पास 40 करोड़ ग्राहक थे। वह इस लिहाज से देश की सबसे बड़ी टेलिकॉम कंपनी थी। आज भी वह 26.8 करोड़ ग्राहकों के साथ तीसरी सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी है। अगर वह दिवाला होने की अर्जी देती है तो ग्राहकों में जियो या एयरटेल या बीएसएनएल-एमटीएनएल में शिफ्ट होने की आपाधापी मच जाएगी। इससे इन कंपनियों के स्पेक्ट्रम पर दबाव बहुत बढ़ जाएगा और टेलिकॉम सेवाओं की गुणवत्ता खराब होगी। दूसरी तरफ, एक बड़ी कंपनी के बाजार से बाहर होने से कंपनियों को फिर से दरें बढ़ाने का मौका मिल जाएगा। देश में अभी एक औसत ग्राहक 14जीबी डेटा खर्च करता है। इस लिहाज से भारत आज दुनिया की अगली पंक्ति के देशों में शामिल है। इसी वजह से देश में डिजिटल क्रांति शुरू हुई है। अगर डेटा महंगा होता है तो इस पर बुरा असर पड़ेगा।

अमेरिका, चीन और दक्षिण कोरिया जैसे ज्यादातर बड़े बाजारों में दो से अधिक टेलिकॉम कंपनियां हैं। बाजार को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए यह अच्छा है। इससे ग्राहकों को अच्छी सेवा मिलती है और कंपनियां भी महंगी टेक्नलॉजी पर पैसा खर्च कर पाती हैं।

टेलिकॉम क्षेत्र के लिए तीन संभावनाएं
पहला, वोडाफोन आइडिया और एयरटेल ने कई बार वॉयस और डेटा टैरिफ के लिए ‘फ्लोर प्राइस’ यानी न्यूनतम दरों की मांग की है, लेकिन जियो इससे सहमत नहीं है। इसके बावजूद अगर सरकार न्यूनतम दरें तय करती है तो इससे ग्राहकों का खर्च बढ़ेगा।

दूसरा, बीएसएनएल और एमटीएनएल का विलय। दोनों सरकारी कंपनियों को मिलाया गया तो इससे सरकारी खजाने पर दबाव बनेगा क्योंकि हाल में 70 हजार करोड़ के पैकेज के बाद भी ये कंपनियां मुनाफे से दूर हैं।
तीसरा, देश के टेलिकॉम मार्केट में एक नई कंपनी के आने की संभावना। वैसे, यह आसान नहीं होगा। अगर कोई कंपनी इस बाजार में कदम रखती है तो उसे भारी-भरकम निवेशक करना होगा, जबकि यहां प्रति ग्राहक आमदनी सबसे कम है। स्पेक्ट्रम भी बहुत महंगा है और सरकार को भारी टैक्स चुकाना पड़ता है। टेलिकॉम क्षेत्र में कब नीति बदल जाए, इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। जो कंपनियां इस क्षेत्र में पहले से हैं, नई कंपनी के लिए उनसे मुकाबला करना आसान नहीं होगा।

पंकज डोभाल
( लेखक आईटी एसपर्ट हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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