चिंता दिनों दिन बढ़ रही है। ताजा खबर अनुसार कोरोना वायरस से मरने वालों की संया 800 पार है। मतलब चीन में 2002-2004 में सार्स वायरस से हुई 774 मौतों से अधिक का आंकड़ा! कोई 37,100से अधिक वायरस पीडि़त मरीजों का पुष्ट आंकड़ा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो चीन में स्थिति, संकट स्थिर होता लग रहा है मगर वायरस को जितना फैलना था फैल गया है और आगे नहीं फैलेगा, ऐसा सोचना अभी जल्दबाजी है! तभी सवाल है कोरोना वायरस ने इंसान की, पृथ्वी के निवासियों की लाचारी और सीमाको जैसे जाहिर किया है उससे क्या लगता नहीं है कि प्रकृति और मानव में यह होड़ अंतहीन है कि तुम डाल, डाल तो मैं पात, पात! किसने सोचा था कि प्लेग, चेचक, टीबी जैसी बीमारियों पर इंसान काबू पाएगा तो कैंसर, सार्स, इबोला या कोरोना वायरस जैसे नए रोग आ खड़े होंगे?
इंसान और उसका विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र यदि सूक्ष्मतम, बारीक, सर्जरी, नैनो तौर-तरीकों में प्रवीण हुआ है तो प्रकृति उससे भी अधिक सूक्ष्म, अणु माफिक वायरस से कहर बरपा रही है। इंसान जहा प्रकृति पर कहर बरपा रहा है तो प्रकृति भी इंसान पर कहर बरपाने में पीछे नहीं है। सोचें, सन् 2020 का मौजूदा वर्ष और प्रगति-विकास की अभूतपूर्व दास्तां के साथ अनुशासित जीवन लिए हुए चीन देश फिलहाल दुनिया में अछूत है। दुनिया के तमाम देशों ने उससे संपर्क तोड़ लिया है। हवाई यात्राएं बंद हो गई हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, भारत आदि सभी देशों ने चीन के तमाम शहरों से अपनी उड़ानें रद्द कर दी हैं। वहां से अपने नागरिकों को निकाल लिया है। और तो और हांगकांग ने भी अपनी मुख्यभूमि चीन से आने वालों की जांच समुद्री पुल से पहले बनवा दी है।
चीन और उसके राष्ट्रपति शी जिनफिंग अमेरिका से, दुनिया से गिड़गिड़ा रहे हैं कि हमें माफ करें मगर इस तरह तो हमसे संपर्क खत्म न करें! और जान लिया जाए कि विश्व स्वास्थ्य सगंठन (डब्लुएचओ) और दुनिया की वैश्विक परीक्षक प्रयोगशालाएं न हों तो चीन न पहले सार्स वायरस की तोड़ निकाल पाया था और न कोरोना वायरस की निकाल सकता है। इसका अर्थ है कि भूमंडलीकरण, वैश्विक पैमाने पर सामूहिक रिसर्च, इलाज के लिए टीके, दवाई की तोड़ के बिना जीना याकि प्रकृति के आंखें दिखाने का अकेले किसी देश का जवाब दे सकना संभव ही नहीं है। कोरोना वायरस से उपजा एक सवाल यह भी है कि मानव के मौजूदा रूप होमो सेपिंयस के भावी रूप याकि होमो डायेस में भी क्या इंसान बीमारीप्रूफ होगा?मौजूदा संकट ने विज्ञान की सीमा को जाहिर किया है।
तभी ऐसा हो सकना संभव नहीं लगता कि साइंस, मेडिसीन ने यदि इंसान की उम्र डेढ़ सौ साल बनवा दी और शरीर को वर्कशॉप में दाखिल कर उसकी ओवरहॉलिंग, चार्जिंग, उसे वायरस-बीमारीलेस बनाने का सिस्टम बनवा दिया तो वह प्रकृति को स्थायी गलाम बनाने वाला होगा। क्यों मैं आशावादी नजरिया लिए हुए हूं।
इंसान के उत्तरोत्तर देवता बनते जाने और अंतत: सृष्टिकर्ता (मंगल पर सृष्टि रचे या किसी और खाली ग्रह पर) बनने के सफर में यह मसला अनुारित है कि जब अंतरिक्ष में इंसान सबकुछ पूर्वनिर्धारित स्थितियों, कंडीशंड (खानपान, जलवायु, पारिस्थिति, हवा-पानी सब) परिवेश में उड़ेगा या सबकुछ बनाकर मंगल पर सृष्टि बनाएगा तो वहां क्या जीवन बिना प्रकृति के होगा? इंसान की बनाई सृष्टि क्या प्रकृतिरहित प्रयोगशाला वाली तब नहीं होगी? मामला उलझ रहा है।
आसान अंदाज में इस तरह समझें कि अंतरिक्ष में अभी जो यात्री जाते हैं तो वे खानपान, सांस लेने से लेकर शरीर की गतिविधि सबमें पृथ्वी से पैकेज्ड खाना, हवा-पानी लेकर जाते हैं। वे वायरस, प्रकृतिजन्य आपदा-विपदा या उन स्थितियों, मजबूरियों को लिए हुए नहीं होते हैं, जिससे बीमार हुआ जाए। स्वस्थ शरीर की पूरी चेकिंग, उसके संचालन की सभी व्यवस्थाओं के साथ ये तयशुदा काम में जुटे होते हैं।
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)