दुनिया के देशों की देखा-देखी भारत सरकार ने भी कोरोना वायरस से लड़ने के लिए रामबाण उपाय के तौर पर पूरे देश में लॉकडाउन लागू किया है। इस लॉकडाउन के 27 दिन हो गए हैं। इन 27 दिनों में सरकार इस बात के लिए अपनी पीठ थपथपा सकती है और थपथपा भी रही है कि भारत दुनिया के उन चंद देशों में है, जिन्होंने अपने यहां कोरोना वायरस के संक्रमितों की संख्या तेजी से बढ़ने से रोक दिया है। प्रधानमंत्री ने तो यहां तक कह दिया है कि दुनिया इसके लिए भारत की तारीफ कर रही है। पर ऐसा लग रहा है कि सरकार कोरोना वायरस के संक्रमितों की संख्या के आगे कुछ और देख ही नहीं रही है या दूसरी सचाइयों को देख कर अनदेखी कर रही है।
लॉकडाउन की वजह से नौकरी गंवाने और अपने परिवार का पेट नहीं भर पाने की मजबूरी में खुदकुशी करने वाले गुड़गांव के छाबू मंडल का मामला सरकार ने जान बूझकर अनदेखा किया है। उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के एक गांव में 52 साल के एक खाते-पीते किसान रामभवन शुक्ल ने खुदखुशी कर ली, क्योंकि खेती के इस सीजन में उनको मजदूर नहीं मिल रहे थे। कर्नाटक के उडुपी में 56 साल के गोपालकृष्ण मडिवाला ने कोरोना वायरस का संदिग्ध होने की चिंता में खुदकुशी कर ली। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल की सातवीं मंजिल से कूद कर एक युवक ने खुदकुशी कर ली थी क्योंकि उसे लग रहा था कि वह कोरोना का संदिग्ध मरीज है और लोग उसका सामाजिक बहिष्कार कर सकते हैं।
ये सब प्रतिनिधि घटनाएं हैं। वास्तव में इस तरह की घटनाओं की पूरे देश में संख्या बहुत बड़ी है। तीन शोधकर्ताओं- तेजस जीएन, कनिका शर्मा और अमन ने देश भर में हुई ऐसी घटनाओं का एक डाटा संग्रह किया है। उनके मुताबिक कम से कम 195 ऐसी मौतें हैं, जो सीधे कोरोना वायरस रोकने के लिए किए गए लॉकडाउन की वजह से हुई हैं। यह भी सिर्फ प्रतिनिधि आंकड़ा है, वास्तविक संख्या इससे कई गुना ज्यादा होगी और यह मानने की कोई वजह नहीं है कि लॉकडाउन के कारण हुई मुश्किलों से मरने वालों की संख्या कोरोना वायरस से मरने वालों की संख्या से बहुत बड़ी है।
इसके बावजूद इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि लॉकडाउन की वजह से कोरोना वायरस पर काबू पा लिया जाएगा। असल में लॉकडाउन का सिद्धांत ही भारत की आबादी और आर्थिक व सामाजिक स्थिति के विपरीत है और इसकी एंटीथीसिस है। अगर सरकार लॉकडाउन को अनेक उपायों में से एक उपाय के तौर पर इस्तेमाल करती, इसे सीमित रखा गया होता, तर्कसंगत तरीके से लागू किया गया होता और इसके साथ साथ चिकित्सा उपायों को भी विकसित देशों के अंदाज में लागू किया गया होता तो शायद बेहतर नतीजे आते। पर दुर्भाग्य से सरकार ने लॉकडाउन का सिद्धांत तो विकसित देशों से उधार ले लिया पर उनके जैसी स्वास्थ्य सुविधा और सामाजिक सुरक्षा के उपाय नहीं होने से भारत में संकट बढ़ गया।
असल में लॉकडाउन का यह सिद्धांत विकसित देशों के लिए है और एक विशेषाधिकार की तरह है। सोचें, भारत जैसे देश में इसे कैसे वैसे ही लागू किया जा सकता है, जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय देश या जापान, दक्षिण कोरिया आदि लागू कर रहे हैं! विकासशील या पिछड़े-गरीब देशों में लॉकडाउन का यह सिद्धांत पता नहीं जान कितनी बचाएगा पर भूख, गरीबी और बेरोजगारी बेइंतहां बढ़ा देगा। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन, आईएलओ का तो आकलन है कि भारत के 40 करोड़ लोग गरीबी के दुष्चक्र में फंसेंगे और इसके लिए कोरोना वायरस जिम्मेदार नहीं होगा, बल्कि उसका संक्रमण रोकने के लिए अपनाया गया लॉकडाउन इसके लिए जिम्मेदार होगा।
इसका दूसरा खतरा यह है कि लॉकडाउन इसी तरह थोड़े समय और लागू रहा तो जो गरीबी के दुष्चक्र में फंसेंगे उनके साथ साथ दूसरे लोगों के लिए भोजन और साथ साथ जरूरी चीजों की उपलब्धता कम होती जाएगी। सो, लॉकडाउन अपने आप में एक विशेषाधिकार है, जो सिर्फ उन लोगों के लिए है, जो दो-चार महीने या उससे ज्यादा समय तक बिना कोई काम किए आराम से रह सकते हैं।
लॉकडाउन एक विशेषाधिकार है
दुनिया के देशों की देखा-देखी भारत सरकार ने भी कोरोना वायरस से लड़ने के लिए रामबाण उपाय के तौर पर पूरे देश में लॉकडाउन लागू किया है। इस लॉकडाउन के 27 दिन हो गए हैं। इन 27 दिनों में सरकार इस बात के लिए अपनी पीठ थपथपा सकती है और थपथपा भी रही है कि भारत दुनिया के उन चंद देशों में है, जिन्होंने अपने यहां कोरोना वायरस के संक्रमितों की संख्या तेजी से बढ़ने से रोक दिया है। प्रधानमंत्री ने तो यहां तक कह दिया है कि दुनिया इसके लिए भारत की तारीफ कर रही है। पर ऐसा लग रहा है कि सरकार कोरोना वायरस के संक्रमितों की संख्या के आगे कुछ और देख ही नहीं रही है या दूसरी सचाइयों को देख कर अनदेखी कर रही है।
लॉकडाउन की वजह से नौकरी गंवाने और अपने परिवार का पेट नहीं भर पाने की मजबूरी में खुदकुशी करने वाले गुड़गांव के छाबू मंडल का मामला सरकार ने जान बूझकर अनदेखा किया है। उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के एक गांव में 52 साल के एक खाते-पीते किसान रामभवन शुक्ल ने खुदखुशी कर ली, क्योंकि खेती के इस सीजन में उनको मजदूर नहीं मिल रहे थे। कर्नाटक के उडुपी में 56 साल के गोपालकृष्ण मडिवाला ने कोरोना वायरस का संदिग्ध होने की चिंता में खुदकुशी कर ली। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल की सातवीं मंजिल से कूद कर एक युवक ने खुदकुशी कर ली थी क्योंकि उसे लग रहा था कि वह कोरोना का संदिग्ध मरीज है और लोग उसका सामाजिक बहिष्कार कर सकते हैं।
ये सब प्रतिनिधि घटनाएं हैं। वास्तव में इस तरह की घटनाओं की पूरे देश में संख्या बहुत बड़ी है। तीन शोधकर्ताओं- तेजस जीएन, कनिका शर्मा और अमन ने देश भर में हुई ऐसी घटनाओं का एक डाटा संग्रह किया है। उनके मुताबिक कम से कम 195 ऐसी मौतें हैं, जो सीधे कोरोना वायरस रोकने के लिए किए गए लॉकडाउन की वजह से हुई हैं। यह भी सिर्फ प्रतिनिधि आंकड़ा है, वास्तविक संख्या इससे कई गुना ज्यादा होगी और यह मानने की कोई वजह नहीं है कि लॉकडाउन के कारण हुई मुश्किलों से मरने वालों की संख्या कोरोना वायरस से मरने वालों की संख्या से बहुत बड़ी है।
इसके बावजूद इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि लॉकडाउन की वजह से कोरोना वायरस पर काबू पा लिया जाएगा। असल में लॉकडाउन का सिद्धांत ही भारत की आबादी और आर्थिक व सामाजिक स्थिति के विपरीत है और इसकी एंटीथीसिस है। अगर सरकार लॉकडाउन को अनेक उपायों में से एक उपाय के तौर पर इस्तेमाल करती, इसे सीमित रखा गया होता, तर्कसंगत तरीके से लागू किया गया होता और इसके साथ साथ चिकित्सा उपायों को भी विकसित देशों के अंदाज में लागू किया गया होता तो शायद बेहतर नतीजे आते। पर दुर्भाग्य से सरकार ने लॉकडाउन का सिद्धांत तो विकसित देशों से उधार ले लिया पर उनके जैसी स्वास्थ्य सुविधा और सामाजिक सुरक्षा के उपाय नहीं होने से भारत में संकट बढ़ गया।
असल में लॉकडाउन का यह सिद्धांत विकसित देशों के लिए है और एक विशेषाधिकार की तरह है। सोचें, भारत जैसे देश में इसे कैसे वैसे ही लागू किया जा सकता है, जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय देश या जापान, दक्षिण कोरिया आदि लागू कर रहे हैं! विकासशील या पिछड़े-गरीब देशों में लॉकडाउन का यह सिद्धांत पता नहीं जान कितनी बचाएगा पर भूख, गरीबी और बेरोजगारी बेइंतहां बढ़ा देगा। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन, आईएलओ का तो आकलन है कि भारत के 40 करोड़ लोग गरीबी के दुष्चक्र में फंसेंगे और इसके लिए कोरोना वायरस जिम्मेदार नहीं होगा, बल्कि उसका संक्रमण रोकने के लिए अपनाया गया लॉकडाउन इसके लिए जिम्मेदार होगा।
इसका दूसरा खतरा यह है कि लॉकडाउन इसी तरह थोड़े समय और लागू रहा तो जो गरीबी के दुष्चक्र में फंसेंगे उनके साथ साथ दूसरे लोगों के लिए भोजन और साथ साथ जरूरी चीजों की उपलब्धता कम होती जाएगी। सो, लॉकडाउन अपने आप में एक विशेषाधिकार है, जो सिर्फ उन लोगों के लिए है, जो दो-चार महीने या उससे ज्यादा समय तक बिना कोई काम किए आराम से रह सकते हैं।
अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)