सन 1880 में आज के बांग्लादेश के रंगपुर जिले में एक बच्ची का जन्म हुआ। ये उस समय की बात है, जब ज्यादातर औरतें पर्देे के पीछे रहती थीं। रुकैया बेगम भी इसी माहौल में पली-बढ़ीं। घर के लड़कों को कलकत्ते के जाने-माने सेंट जेवियर्स कॉलेज भेजा गया, लेकिन लड़कियों की शिक्षा घर पे। वो भी सिर्फ अरबी भाषा में, ताकि वो कुरान शरीफ पढ़ सकें।
रुकैया के बड़े भाई इब्राहिम अलग ख्यालात के थे। उन्होंने छुप-छुपकर अपने बहनों को बंगाली और अंग्रेजी सिखाई। उनकी जिद से, बहन की शादी भी एक प्रगतिशील आदमी से हुई। सैयद सख़ावत हुसैन लंदन में पढ़े थे और डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट भी थे। रुकैया बेगम के पढ़ने-लिखने के शौक से, उन्हें कोई आपत्ति न थी।
आप सोच रहे होंगे, रुकैया बेगम ने ऐसा क्या किया, जो मैं उनकी आत्मकथा आपको सुना रही हूं। थोड़ा सब्र रखिए। आजकल की औरतें कहती हैं, मैं फेमिनिस्ट हूं। यानी कि औरत को आदमी के बराबर का दर्जा मिलना चाहिए, उनका शोषण गलत है। रुकैया बेगम ने यही आवाज आज से सौ साल पहले ऊठाई थी, अपनी कलम के माध्यम से। 1905 में उनकी एक कहानी प्रकाशित हुई जिसका नाम था ‘सुल्ताना’ज़ ड्रीम’ (सुल्ताना का सपना) ये एक व्यंग्यकथा है, जिसमें उन्होंने एक बिल्कुल अलग दुनिया की कल्पना की।
कहानी की शुरुआत में लेखिका बगीचे में सैर के लिए निकलती हैं, तो एक अजीब सा नजारा दिखता है। हर तरफ औरतें ही औरतें, आदमियों का निशान ही नहीं। तब पता चलता है कि इस देश में आदमियों को घर के अंदर रहना पड़ता है। जैसे जनाना, वैसे यहां का ‘मर्दाना’। रुकैया बेगम को हंसी आई तो सिस्टर सारा ने समझाया कि शेर इंसान से शक्तिशाली है मगर इंसान ने उस पर काबू पाया। इसी तरह ‘लैडीलैंड’ में औरतों ने अपने दिमाग के इस्तेमाल से आदमियों को नियंत्रण में रखा है।
लेखक को आश्चर्य होता है कि इस देश में सबकुछ इतना सुंदर, सरल व साफ कैसे। तो सिस्टर सारा एक ऐतिहासिक कथा सुनाती हैं। जिस वक्त आदमियों का बोलबाला था, रानीमाता ने सिर्फ एक मांग की- हमारी लड़कियों को शिक्षा दी जाए। उन्होंने दो यूनिवर्सिटी खोलीं, जहां विज्ञान और वैज्ञानिक सोच को ज्यादा महत्व दिया गया।
एक यूनिवर्सिटी ने बादलों से धरती तक पानी लाने का एक पाइप इजाद किया, दूसरी ने तपती हुई धूप की ऊर्जा का वितरण करने का तरीका निकाला। आदमी हंसे, कहा ये सब बकवास है। वो अपने पड़ोसी देश के साथ जंग छेड़ने निकल पड़े। मगर बुरी तरह हारे, दुम दबाकर वापस।
इस घोर विपत्ति के काल में यूनिवर्सिटी की लेडी प्रिंसिपल ने कहा, हमें एक चांस दीजिए। उनकी बस एक शर्त थी कि मर्दों को जनाने में डाला जाए। थके-हारे निराश आदमियों ने शर्त मान ली। अब हुआ यूं कि लेडी प्रिंसिपल और उनके विद्यार्थियों ने जंग के मैदान में कमाल कर दिया। सूर्य की रोशनी को हथियार बनाकर शत्रु को मात दी। और उस दिन से देश की बागडोर औरतों ने अपने हाथों में ले ली।
कुछ दिन बाद आदमियों ने हल्की सी आवाज उठाई कि हमें आजाद करो। रानीमाता ने बात टाल दी। महीने-साल बीत गए, आदमियों को पर्दे के पीछे रहने की आदत हो गई। वो खाना बनाने और बच्चे पालने में इतने बिजी कि लड़ने-झगड़ने, लफड़े करने का समय नहीं। अब देश में चैन-अमन, सुख-शांति, न कोई पुलिस, न कोई अपराधी।
खैर अंत में रुकैया बेगम सपनों की दुनिया से असली दुनिया में वापस आती हैं। पर कहानी से हमें दो सीख जरूर मिलती हैं। एक तो ये कि गुजरे जमाने में औरतों ने शायद अपनी सुरक्षा के लिए पर्दे के पीछे रहना मंजूर किया होगा। फिर समाज ने रीति-रिवाज़ और धर्म के नाम पर दरवाजे पर ताला लगा दिया। दूसरा ये कि अगर विज्ञान का सही इस्तेमाल किया जाए, तो दुनिया की हर समस्या हल हो सकती है।
जितना पैसा मिलिट्री टेक्नोलॉजी को इजाद करने में खर्च होता है, वो किसी बीमारी को खत्म करने में नहीं। कम्प्यूटर, राडार, इंटरनेट, जीपीएस, जेट इंजन- ये सब युद्ध में पहले इस्तेमाल हुई। और फिर हमारी रोज की जिंदगी का हिस्सा बनी। क्या ये उल्टी बात नहीं। शायद इसी मर्दानगी की वजह से सुंदर, सरल और साफ दुनिया आज भी एक सपना है।
रश्मि बंसल
(लेखिका और स्पीकर हैं ये उनके निजी विचार हैं)