बिहार की एक अदालत ने गजब किया हुआ है। एक जिले के चीफ चुजिशिएल मजिस्ट्रेट यानी सीजेएम ने एक वकील के आवेदन पर यह आदेश दिया कि देश में भीड़ की हिंसा को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम खुली चिट्ठी लिखने वाली 49 जानी मानी हस्तियों के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया जाए और उनके खिलाफ एफ आईआर लिखी जाए। पूरा देश इस बात को लेकर हैरान रहा। इसे विरोध की आवाज को दबाने के प्रयास के तौर पर देखा जा रहा है। हालांकि केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने प्रेस कांफ्रेंस करके कहा है कि इसके लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने कहा कि इसका केंद्र सरकार से कोई लेना देना नहीं है। उनके कहने का तात्पर्य यह था कि यह मामला बिहार की एक अदालत का है, जिसने एक वकील के आवेदन पर ऐसा आदेश दिया। क्या सचमुच ऐसा है? क्या सचमुच यह सिर्फ एक बिहार की अदालत तक सिमटा मसला है और सरकार का इससे कोई लेना देना नहीं है?
यह असल में प्रतिरोध की आवाज के लिए स्पेस कम करने और उसे दबाने के लिए हो रहे संस्थागत प्रयासों का ही नतीजा है कि किसी के दिमाग में यह बात आई कि प्रधानमंत्री के नाम खुली चिट्ठी लिखने से देश की इज्जत खराब होती है और चिट्ठी लिखने वालों पर राजद्रोह का मुकदमा चले। और फिर किसी अदालत ने इसकी मंजूरी भी दे दी। इस मामले के दो पहलू हैं। पहला तो यह है कि विरोध में उठने वाली आवाज को दबाने और उसकी साख खराब करने के प्रयास तत्काल रोके जाने चाहिए यह कि अंग्रेजी के राज में बने राजद्रोह के कानून की तत्काल खत्म किया जाना चाहिए। पिछले लोक सभा चुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणापत्र में कहा था कि उसकी सरकार आई तो वह राजद्रोह के कानून को बदलेगी। इसके जवाब में भाजपा की ओर से कहा गया कि वह इस कानून को और सख्त बनाएगी। असल में भारत में देशद्रोह और राजद्रोह दोनों को एक कर दिया गया है। सरकार के विरोध को ही देश का विरोध माना जाने लगा है।
भाजपा ने बहुत व्यवस्थित तरीके से इस बात को स्थापित किया है कि उसकी सरकार का, प्रधानमंत्री का विरोध करना देशद्रोह है। असल में देशद्रोह और राजद्रोह दोनों अलग अलग चीजें हैं और दोनों के लिए अलग अलग कानून हैं। राजद्रोह का कानून अंग्रेजों ने अपनी क्रूर व बर्बर सत्ता के खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए बनाया था, जिसे किसी न किसी रूप में आजाद भारत में भी बनाए रखा गया है। बुनियादी रूप से यह कानून 17वीं सदी में ब्रिटेन में बना था, जिसे बाद में ब्रिटिश सरकार ने भारत में भी लागू किया। इस कानून के तहत भारत में पहला मुकदमा 1897 में महान स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ चला था। तभी उम्मीद की जा रही थी कि आजादी के बाद यह कानून खत्म हो जाएगा पर 72 साल बाद भी यह कानून बना हुआ है। इसे खत्म करने की बजाय इसके नाखून और दांत ज्यादा पैने किए जा रहे हैं। इसका दायरा इतना बढ़ाया जा रहा है कि किसी मामले में प्रधानमंत्री को खुली चिट्ठी लिखने पर भी इस कानून के तहत मुकदमा दर्ज हो सकता है।
इसलिए अभी सबसे पहली जरूरत इस कानून पर विचार करने और इसे खत्म करने की है। जैसे सरकार दूसरे अनेक बेकार हो गए कानूनों को खत्म कर रही है। प्रधानमंत्री के नाम लिखे जिस खुले खत को लेकर राजद्रोह का मामला बना है वह खत लोक तंत्र के सबसे बुनियादी सिद्धांतों के तहत हर नागरिक के अधिकार से जुड़ा हुआ है। लोक तंत्र में हर नागरिक को अपनी सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने का हक है। अगर उसे कहीं भी कुछ गलत होते हुए दिखाई देता है तो वह सरकार का ध्यान उस ओर खींच सकता है। देश की 49 जानी मानी हस्तियों ने यहीं काम किया है। सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार के मामले में धारा 124 को संवैधानिक रूप से तो सही माना था पर इसका इस्तेमाल सीमित कर दिया था। अदालत ने कहा था कि सिर्फ कड़े शब्दों में सरकार की आलोचना करना इस धारा के तहत मुकदमा करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। अगर किसी की मंशा अस्थिरता पैदा करने या कानून व्यवस्था बिगाडऩे की हो तभी इसका इस्तेमाल होना चाहिए। अफसोस की बात है कि सीमित होने की बजाय इसका इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है।
अजीत कुमार
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)