ये तो हर साल का राग है

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कुछ खबरें स्थायी होती हैं। जैसे जुलाई से सितंबर तक बाढ़ और बारिश के कारण डूब कर, बह कर, बिजली गिरने से, सर्पदंश से भारत में लोगों का मरना। ऐसे ही नवंबर से जनवरी तक ठंड से ठिठुर कर लोगों के मरने की खबरें। फिर मई-जून में लू लगने या अत्यधिक गरमी से लोगों के मरने की खबरें। ऐसे ही कुछ तस्वीरें भी स्थायी होती हैं। कल ही अखबारों में ऐसी तस्वीरें दिखाई दीं, जो जबसे अखबार छप रहे हैं, तब से हर साल बिना अपवाद के छप रही हैं।

पहली तस्वीर छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर की थी। जिले के मैनपाट प्रखंड के सुपलगा गांव के लोग प्रमिला नाम की एक गर्भवती महिला को खाट पर उठा कर प्रसव के लिए अस्पताल ले जा रहे हैं। गांव से सटी मछली नदी का पानी चारों तरफ फैल गया है, जिससे रास्ते बंद हो गए हैं। दूसरी तस्वीर बिहार के चंपारण जिले की है, जिसमें लोग एक बुजुर्ग और बीमार व्यक्ति को खाट सहित उठा कर इलाज के लिए ले जा रहे हैं। त्रिपुरा की राजधानी अगरतला के मुख्य रास्तों पर लोगों के छोटे छोटे बच्चों को कंधों पर उठा कर ले जाने की तस्वीर है तो असम के कई गांवों में नाव से रास्तों पर चलने की तस्वीर है। बिहार के अररिया जिले की एक रोचक तस्वीर है, जिसमें लोग ड्रम को नाव बना कर दूल्हा-दुल्हन की विदाई करा रहे हैं।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में मॉनसून पहुंच गया है पर अभी अच्छी बारिश नहीं हुई है अन्यथा वहां भी किसी न किसी सड़क पर पूरी या आधी डूबी हुई बस की तस्वीर अब तक आ गई होती। इस तस्वीर की भी अखबारों में स्थायी जगह है। देश की वित्तीय राजधानी मुंबई में तीन दिन की बारिश में तीस से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। मुंबई, पुणे दोनों जगह दिवार गिरने से दब कर लोग मरे। मुंबई की सड़कों पर एक एसयूवी डूब गई, जिससे दम घुटने से दो लोगों की मौत हो गई। जब इस पर लोगों ने सवाल उठाए तो पिछले 25 साल से मुंबई नगर निगम पर कब्जा रखने वाली शिव सेना ने पिछले दिनों वाशिंगटन में बारिश के बाद बने ऐसे ही हालात की फोटो दिखा दी। जैसे कह रहे हों कि जब वहां ऐसा हो रहा है तो मुंबई की क्या बिसात है!

सवाल है कि आखिर ऐसा क्यों होता है? आखिर कमी कहां है, जो पानी के निकासी की इस बुनियादी खामी को कोई ठीक नहीं कर पा रहा है? क्या संसाधन की कमी इसके लिए जिम्मेदार है? नहीं, संसाधन की कमी नहीं, बल्कि मुसीबत के समय संसाधनों की लूट की मानसिकता इसके लिए जिम्मेदार है। मशहूर पत्रकार पी साईनाथ ने ‘एवरीबॉडी लव्स एक गुड ड्रॉट’ नाम से किताब लिखी थी। जिस तरह सरकारी अधिकारी और नेतागढ़ सूखा और अकाल देख कर खुश होते हैं वैसे ही बाढ़ और बारिश से भी खुश होते हैं। यह साल में एक बार आने वाला त्योहार है, जिसमें लूट की सर्वाधिक संभावना होती है। तभी इस समस्या को स्थायी रूप से ठीक करने का प्रयास नहीं होता है।

नदियों, नालों और बांधों की सफाई करके गाद निकालने का काम सालाना त्योहार की तरह है। इसके लिए देश भर में हजारों नहीं लाखों करोड़ रुपए खर्च होते हैं। इस खर्च के दस फीसदी का भी सही इस्तेमाल नहीं होता है। बांध के रिपेयर के नाम पर सैकड़ों करोड़ खर्च होते हैं और बांध टूट जाए तो नेता कह देते हैं कि केकड़ों ने बांध कमजोर कर दिया। हाल ही में महाराष्ट्र के एक मंत्री ने यह तर्क दिया। गाद निकालने के नाम पर हजारों, लाखों करोड़ के वारे न्यारे हो गए हैं और अब हालात ऐसे हो गए हैं कि भारत सरकार अगले कई बरसों तक अपनी सारी कमाई गाद निकालने में खर्च करे तब भी नदियों, नालों, बांधों, तालाबों, कुओं की सफाई नहीं हो पाएगी। सबसे पहले यह समझना होगा कि बाढ़ कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। वह मनुष्य की बनाई आपदा है और जब तक इसे मानवीय आपदा मान कर इससे निपटने के उपाय नहीं होंगे, तब तक देश हर साल ऐसे संकट से गुजरता रहेगा और नेता, अधिकारी, ठेकेदार अपनी तिजोरी भरते रहेंगे।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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