गांव में अपने घर के सामने जलाशय के एक छोर पर लगे इमली के वृक्ष की छाया तले विश्राम की मुद्रा में बैठा था। गर्म ऊनी कपड़ों का बोझ भी बहुत था। सर्द हवाएं ज़ोरों पर थी। कमल-दल लहरों पर कुछ ऐसे इठला रहे थे की मानो जल और वायु मिल कर कोई मादक संगीत सुना रहे हो और ये कमल-दल कोई नर्तक हैं जो ताल पर थिरक रहे हैं। आनंदमयी दृश्य था। अभी कुछ ही क्षण बीते थे और तेज़ सर्द हावाओं का हाँथ थामे घने काले बादल आ धमके। शायद बादलों को वह दृश्य कुछ ख़ास पसन्द नहीं आया था इसीलिए तो वे बरस पड़े थे। मै घर की तरफ भागा। ठंडी हवा त्वचा में चुभ रही थी।
अगली सुबह मै फिर वहीं बैठा था। धुप खिली थी। शाम की बारिश का कोई निशां नहीं था। कुछ देर बाद मेरी नज़र कमल के पत्तों पर पड़ी। पत्तों पर विश्राम कर रही बारिश की बूंदे सुबह की धुप में किसी हीरे की तरह चमक रही थीं। मेरे मस्तिष्क में एक अजीब सा प्रश्न उठा। बारिश में तो अनगिनत बूंदे थीं लेकिन यहाँ तो कुछ ही दिख रही हैं…?? उत्तर बड़ा ही सरल था क्योंकि बारिश का भूत और वर्तमान मेरे सामने था। पत्तों पर गिरी बूंदों को मै पहचान सकता था किन्तु तालाब के पानी में गिरी बूंदे खो चुकी थीं। यही जीवन दर्शन है, यही प्रकृति है। बारिश की उन्ही बूंदों की तरह ही तो हम भी अपना स्थान चुन सकते हैं, जिससे हमारे भविष्य का निर्माण होता है। कोई एक जो जन-जन में पहचाना जाता है और हज़ारों की भीड़ कभी गुमनाम ही रह जाती है। स्कूल के दिनों में दिनकर जी की एक कविता पढ़ी थी जो आज भी याद है……….
“आशा का दीपक”
यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है……