अतिजलवृष्टि या फिर निपट सूखा यह तो प्रकृत्ति का मसला है। कब, क्यों हो जाता है इस पर किसी का वश नहीं लेकिन प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की पूर्व तैयारी तो चाक -चौबंद होनी चाहिए, यह तो कम से कम अपने हाथ में है। माना कि पूरी तरह से नहीं निपटा जा सकता। लेकिन इस बाबत अपनी तरफ से प्रयास तो दिखना चाहिए। सरकारें सिर्फ दावे करती हैं। मौसम विभाग के अलर्ट के बाद भी सुस्ती सवाल खड़े कर ती है। यह सही है कि इस बार बारिश का मौसम लंबा खिच रहा है। पूर्वी यूपी और बिहार में तो तबाही का आलम है। लगातार हुई बारिश से गाजीपुर, बलिया, गोरखपुर, संतक बीरनगर, बस्ती, अम्बेडकर नगर, मीरजापुर, वाराणसी समेत पूर्वांचल के कई जनपदों में भारी जान-माल का नुकसान भी हुआ। यूपी की राजधानी लखनऊ में भी बारिश के कहर से बीते कई दिन जीवन अस्त-व्यस्त रहा। पॉश इलाकों में सडक़ें तालाब बन गई। शहर के भीतरी इलाकों का इससे अंदाजा लगाया जा सकता है। कुछ घंटे यदि मूसलाधार बारिश हुई तो जलभराव के हालात पैदा हो जाते हैं।
सीवर लाइन सफाई का सारा दावा पिलपिला साबित हो जाता है। मौसम विभाग के मुताबिक 2010 के बाद यह मानसून का सबसे लम्बा सीजन है। केरल, तमिलनाडु, मुंबई, मध्यप्रदेश, राजस्थान में कहर ढ़ाने के बाद इधर बारिश ने यूपी के पूर्वांचल और बुदेलखंड को इतना सराबोर किया कि वो सबके लिए मुसीबत साबित हुआ। कितनी बड़ी विसंगति है कि शहरों में खासतौर पर ऐसी भारी बारिश के चलते जो तबाही आती है उसके कारणों से परिचित होने के बाद भी नगर निगम या फिर नगरपालिकाएं माकूल बंदोबस्त नहीं करतीं और ना ही उन वजहों को दूर करने की कोशिश की जाती है। यहां प्रदेश की राजधानी लखनऊ की बात करें तो तकरीबन सैकड़ों की तादाद में तालाबों को पाटकर आवासीय कालोनियां बना दी गई हैं। बारिश का पानी जाए तो कहां जाए। अभी पिछले दिनों इस बाबत प्रशासन के स्तर पर थोड़ी तेजी बरती गई लेकिन बाद में सारी मुस्तैदी खामोश हो गई या कर दी गई। स्थिति यह है कि पैसे दीजिए अवांछित नक्शा भी पास हो जाएगा।
अतिक्रमण के चलते भी शहरीकरण खुद-ब-खुद एक समस्या में तब्दील होता जा रहा है। इस हालात में प्राकृतिक आपदाओं का प्रभाव क्षेत्र गहरा, व्यापक और मारक हो जाता है। एक तरफ स्मार्ट सिटी के सपने बुने जा रहे हैं, दूसरी तरफ बारिश की अवधि यदि ज्यादा हुई तो घरों में बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। अभी तो बारिश का प्रकोप है, इसके थमने के बाद संक्रामक बीमारियों का प्रकोप। स्वच्छता अभियान के तमाम दावे इन हालात में तार-तार हो जाते हैं। सरकारी अस्पतालों की कार्यशैली सबको पता है, किस तरह मुफ्त में दी जाने वाली दवाईयां आस- पास के मेडिकल स्टोरों को सप्लाई कर दी जाती हैं और मरीजों को बाहर से दवा खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है। अफसोसजनक यह है कि इस मौसम की चुनौतियों से सरकारी अमला वाकिफ होते हुए भी पहले से कोई तैयारी नहीं करता। इसी का परिणाम है कि बारिश-भयावह और जानलेवा हो जाती है और थमने के बाद संक्रामक रोगों का दौर शुरू हो जाता है।