परंपराओं को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी हम सभी की है। हमारी परंपराएं न सिर्फ हमें एक दूसरे के करीब लाती हैं बल्कि हमारी समृद्ध संस्कृति की वाहक भी होती हैं। लेकिन आधुनिकता के नाम पर जिस तरह से भारत की परंपराओं की हत्या करने की साजिश रची जा रही है, वह हैरान करने वाली है। हाल ही में दक्षिण दिल्ली के एक मॉल में स्थित एक रेस्टोरेन्ट में एक महिला को सिर्फ इसलिए एंट्री नहीं दी गई, क्योंकि उस महिला ने साड़ी पहनी थी।
सोचकर देखिए, एक महिला दुनिया में कहीं भी साड़ी पहने दिख जाए, तो उसे सीधे तौर पर भारत से जोड़ा जाता है। विदेशी महिलाएं भारत में ताजमहल से लेकर वृंदावन तक में साड़ी पहने हुए मिल जाएंगी। लेकिन हमारे ही देश में, देश की राजधानी में AQUILA नाम के रेस्टोरेंट में हमारे ही देश की एक महिला को एंट्री से यह कहकर रोक दिया जाता है कि भारतीय परिधान साड़ी एक स्मार्ट पोशाक नहीं है। जिस महिला के साथ यह सब हुआ, उनका नाम अनीता चौधरी है। अनीता ने सोशल मीडिया पर अपना दर्द बयां करते हुए लिखा, ‘कल मेरी साड़ी की जो बेइज्जती हुई वो मेरे साथ हुई अब तक की किसी भी बेइज्जती से कहीं ज्यादा बड़ी और दिल को टीस पहुंचाने वाली थी।’
मैं भी एक महिला हूं, साड़ी भी पहनती हूं और शॉर्ट्स भी, ये मेरी मर्जी है कि मुझे क्या पहनना है, कोई इसे तय करने वाला होता कौन है? मुझे अपनी परंपराओं के प्रति अपनी जिम्मेदारी पता है। देश की अधिकांश बेटियां पहली बार अपनी मां की साड़ी पहनती हैं, और उस तस्वीर को बेहद सहेजकर रखती हैं? क्यों? क्योंकि उन्होंने भले ही मां के कई और कपड़े पहने हों, लेकिन साड़ी की वो तस्वीर सिर्फ एक तस्वीर नहीं होती है, बल्कि उसमें मां का वात्सल्य भी होता है।
आधुनिकता का मतलब परंपराएं छोड़ना नहीं
आज भारतीय नारी पुरुषों के संग कदम से कदम मिलाकर चल रही है। साड़ी में हर जगह जरूरी नहीं कि वें स्वयं को कम्फर्ट फील करें। कामकाजी महिलाओं को बहुत बार साड़ी में काम करने में दिक्कतें होती हैं, इसलिए वे अपनी पोशाक चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। वैसे तो सभी पोशाक अच्छी होती है लेकिन अपने निजी अनुभव के आधार पर साड़ी को बहुत अच्छी पोशाक मानती हूं। साड़ी में भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है और इसे पहनकर हर महिला में एक अलग तरह का आकर्षण आ जाता है।
मैं मानती हूं कि आज अधिकांश भारतीय महिलायें कामकाजी हैं, भागमभाग वाली जिंदगी जीती हैं, कई मोर्चों पर एक साथ डटी रहती हैं, ऐसे मैं उनका पहनावा सुविधाजनक, सुरक्षित व आसानी से मेंटेन होने वाला रहना चाहिए। घर पर, खेतों में, ऑफिस में काम करते समय, ट्रेन या बस में सफर करते समय अगर पहनावा ऐसा हो जिसे बार-बार सम्भालना ना पड़े, तो असहजता नहीं रहती है। भारत देश एक ऐसा देश है जहां ‘अनेकता में एकता’ की भावना पाई जाती है, यह विभिन्न संस्कृतियों, परंपराओं, धर्मों, जातियों, भाषाओं, नस्लों और जातीय समूहों का देश है। इसलिए भारतीयों की वेशभूषा संस्कृति, परंपराओं, धर्मों, जातियों, भाषाओं के आधार पर अलग-अलग है।
मेरे साथ कई बार ऐसे दिन आते हैं, जब मैं सिर्फ साड़ी में खुद को लपेटना चाहती हूं और अपनी यादों को वापस लाना चाहती हूं। मैं एक पारंपरिक महिला हूं जो सांस्कृतिक परंपराओं का सम्मान करती है। लेकिन मैं एक आधुनिक महिला भी हूं जो किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्मान करती है और परिवर्तन को स्वीकार करती है। किसी भी खास मौके पर मुझे साड़ी पहनना ही पसंद है और ऑफिस में या सामान्य दिनों में कुछ और भी पहन सकती हैं।
मैं खुद को एक पारंपरिक भारतीय महिला को दिखाने के लिए साड़ी पहनना नहीं चाहती, लेकिन मैं एक भारतीय महिला के रूप में साड़ी पहनना पसंद करती है, एक ऐसी महिला जो भारतीय शिल्प का सम्मान करती है और प्रत्येक व्यक्ति को उसकी विरासत की याद दिलाती है। मुझे क्या पहनना है, यह तब तक मेरा नितांत निजी मसला है, जब तक मेरे पहनावे से खुद मुझे परेशानी ना हो। मेरे पहनावे के अधिकार क्षेत्र में अगर कोई भी आने की कोशिश करेगा, तो क्या वह सही करेगा? इसी सवाल को आज आपके लिए छोड़कर जा रही हूं, सोचिएगा…
दिव्या गौरव त्रिपाठी
(लेखिका सामाजिक चिंतक हैं ये उनके निजी विचार हैं)