मिलन सारिया तेल की तरह आवश्यक

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अभिनेता राजकुमार, प्रेम नाथ और हरफऩमौला किशोर कुमार के सनकीपन के किस्से हमेशा सुनाए जाते रहे हैं। वर्तमान में रणवीर सिंह भी कभी-कभी कुछ असामान्य करते हैं। संगीतकार प्रीतम भी तुनक मिज़ाज हैं और ए.आर रहमान भी आसानी से मुलाकात का समय नहीं देते। आम आदमी को बड़े जतन करके अपने को समान्य बनाए रखना होता है। सामाजिक जीवन की मशीन में मिलनसारिता तेल की तरह आवश्यक है। 1963 में स्टेनली क्रामेर की फिल्म ‘इट्ज ए मैड मैड वर्ल्ड’ का घटनाक्रम इस तरह है कि एक सज़ायाफ्ता मुज़रिम 15 वर्ष की सजा काट कर बाहर आता है। वह एक दुर्घटना में घायल होता है और मृत्यु पूर्व बताता है कि उसने चोरी किया हुआ धन कहां गाड़ रखा है। घटनास्थल पर मौजूद 5 दोस्तों के बीच गड़ा हुआ धन पाने के लिए प्रतिस्पर्धा प्रारंभ होती है। इसी कथा को इंद्रकुमार ने ‘धमाल’ नाम से बनाया है। जीवन के हर क्षेत्र में कुछ सनकीपन देखा जाता है। कभी- कभी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए भी यह किया जाता है। प्राय लोकप्रिय व्यक्ति अपनी निजता की रक्षा के लिए सनकीपन का स्वांग रचते हैं। राजनैतिक नेता यह खेल ब-खूबी जानते हैं। आम आदमी नेताओं के स्वांग का खर्च उठाता है। घर खर्च में दस प्रतिशत धन इस मद में रखा जाता है। आयकर, विक्रय कर इत्यादि करों से अलग, घरेलू बजट में सार्वजनिक स्वांग के लिए कुछ राशि आरक्षित रखना होता है। आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया के दौर में घर खर्च का बजट बनाए जाने की शिक्षा अर्थशास्त्र में शामिल की जाना चाहिए।

घर की महिला यह काम कुछ इस चतुराई से करती है कि ना सुई है ना धागा परंतु रफू का काम हो जाता है। एक दौर में विलक्षण फिल्मकार गुरुदत्त ने आत्महत्या की। मीडिया में कुछ दिन ही चर्चा हुई। वर्तमान में एक कलाकार की आत्महत्या पर कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय भी पोस्ट मार्टम विभाग की रचना कर रहा है। मुंबई में घटी घटना को बिहार के चुनाव से जोड़ा जा रहा है और बिहार में ही जन्मे शत्रुघ्न सिन्हा खामोश हैं। वे जान गए हैं कि अब कहीं कुछ नहीं किया जा सकता, योंकि पूरे कुंए में ही भांग पड़ी है। हर क्षेत्र में सक्रिय बाहुबली ने तर्क सम्मत विचार शैली निरस्त कर दी है। बच्चों के खेल ‘स्टेच्यू’ को वयस्क खेल रहे हैं। यह स्टेच्यू दशा सदियों तक कायम रह सकती है। रायपुर में रहने वाले संजीव बशी की बस्तर से जुड़ी ‘भूलन कांदा’ पर अवाम का पैर पड़ ही गया है। निदा फाजली लिखते हैं- ‘मौला बच्चों को गुड़धानी दे, सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे।’ यह नादानी सनकीपन से अलग है। नादानी में मासूमियत का भाव है। सनकीपन में रूरता शामिल है। सृजनशील किशोर कुमार ने अपने सनकीपन को अभिव्यक्त किया। फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ में, जिसे आज भी देखकर अवसाद से मुक्ति मिल जाती है। इस तरह फिल्म देखना इलाज भी बन जाता है। सुबह बगीचे में सैर करने वाले सामूहिक ठहाके भी लगाते हैं। सनकीपन, औघड़पन और ठरकी होने में अंतर है। सामंतवादी ठरकी होते हैं। आराधना का एक स्वरूप औघड़पन कहलाता है। कहावत है, ‘औघड़ गुरु का औघड़ ज्ञान, पहले भोजन, फिर स्नान।’

इसे सनकीपन की हिमायत नहीं माना जाना चाहिए, परंतु कुछ लोगों ने सनकीपन के रास्ते पर चलते हुए नई खोज कर ली है। आयुष्मान खुराना, विकी कौशल, राजकुमार राव, भूमि पेडनेकर, तापसी पन्नू इत्यादि सनक और सत से मुक्त सरल व्यवहारिक कलाकार हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपना काम जानने वाले फिल्मकार के साथ सभी कलाकार सहयोग करते हैं। अपनी सेहत के प्रति सावधान रहने वाले कलाकार अपना संतुलित आहार अपने साथ लाते हैं। इन कलाकारों ने अपने इर्द-गिर्द चाटुकार लोगों की भीड़ नहीं जुटाई। वर्तमान के कलाकारों ने पूंजी कुशल निवेश किया है। सोनू सूद जैसे कलाकार समाजिक कल्याण कर रहे हैं। भय बिन होय न प्रीति मारिया पुजो की रचना गॉडफादर के प्रारंभ में एक घटना का विवरण इस तरह है कि एक व्यक्ति गॉडफादर के ‘दरबार’ में न्याय की गुहार लगाता है कि कुछ लोगों ने उसकी पुत्री के साथ दुष्कर्म किया है और दारोगा ने रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की। गॉडफादर का अपना सूचनातंत्र है। वह गुनहगारों को दंडित करता है, इस तरह का न्याय व दया पाने वाला व्यक्ति गॉडफादर का कर्जदार हो जाता है। उसके आदेश पर कुछ भी कर गुजरता है। इस तरह गॉडफादर का प्रभाव क्षेत्र बढ़ता रहता है और वह समानांतर व्यवस्था चलाता है। गॉडफादर की दया उसका सिक्का बन जाती है। स्पष्ट है कि बहुमत पाकर बनाई व्यवस्था में न्याय न मिलने पर यह विकल्प बनता है। अवाम अपनी छाती कूट का अधिकार खो चुकी है। एक प्रदेश का सदर वह व्यक्ति बना है, जिसने अनगिनत अपराध किए थे।

रॉबिनहुड अपनी लूट का बड़ा भाग साधनहीनों को बांट देता है व चंबल के डाकू भी यही करते थे। दरअसल इससे उन्हें पुलिस के पहुंचने की अग्रिम जानकारी मिलती थी। इस तरह स्कॉटलैंड नुमा सूचना तंत्र विकसित हो जाता था। स्कॉटलैंड के नागरिक जरा सा भी असामान्य घटित होता देख,यार्ड को सूचना देते हैं। नागरिक का चरित्र ही व्यवस्था की ताकत है। विश्वविद्यालय द्वारा संचालित परीक्षा में एक ही विषय में फेल हुए छात्र को दया के 5 अंक दिए जाते हैं। यह बात अलग है कि वही छात्र उसी विषय में डॉटरेट अर्जित करता है। परीक्षा प्रणाली की छलनी में छेद ही छेद होते हैं। घर बैठे शिक्षा का स्वांग भी जारी है। पवित्र स्थानों के बाहर भिखारी भीख लेते हुए पूरा जीवन गुजार देते हैं। इन्हें मेहनत का अवसर दें तो ये साफ मुकर जाते हैं। ऐसा दान निकमापन विकसित करता है। व्यवस्था संचालक निकम्मे लोगों की फौज, सरहद के भीतर अपने विरोधियों को अपने ढंग से निपटा देते हैं। अंधा बांटे रेवड़ी अपने अपने को दे। राज कपूर की बूट पॉलिश का गीत है भीख में जो मोती मिले तो भी हम ना लेंगे, जिंदगी के आंसुओं की माला पहनेंगे’। टाइम्स ‘मिरर’ के लिए त्रिशा गुप्ता ने लिखा कि बूट पॉलिश के प्रारंभिक भाग में बच्चे भीख मांगते हैं। वे गाते हैं ‘धेला दिला दे बाबा, धेला दिला दे, जो तू धेला नहीं देगा, तेरे घर चोरी हो जाएगी, धेला जो ना देगा तेरी नानी मर जाएगी..’ गोयाकि धमकियां दी जा रही हैं।

इसी तर्ज पर पूजा-पाठ में धमकियां हैं कि फलां ने पाठ नहीं कराया तो उसके पति का जहाज डूब गया। राजकुमार हीरानी की फिल्म पीके में प्रस्तुत है कि सारा खेल भय का है। अधिक डरा हुआ आदमी जमीन पर लेटा हुआ प्रार्थना करता है। डर की रस्सी सांप से अधिक भयानक सिद्ध होती है। रात में रस्सी पर पैर पड़ता है और व्यक्ति रस्सी को सांप समझ कर दहशत में मर जाता है। अधिकांश सांप जहरीले नहीं होते। गॉडफादर प्रेरित फिल्में अनेक देशों में बनी हैं। भारत में फिरोज खान की ‘धर्मात्मा’ पहली फिल्म थी। राम गोपाल वर्मा की ‘सरकार’ में अमिताभ ने दमदार अभिनय किया है। वर्तमान में गॉडफादर अपने नए स्वरूप में सामने आए हैं। गॉडफादर की अंतिम कड़ी में युवा सरगना पद के उत्तराधिकारी की पत्नी अपने गर्भ को गिराना चाहती है। वह जानती है कि जन्म लेकर युवा होते ही पुत्र अपराधी बनेगा और किसी दिन पुलिस क्या प्रतिद्वंद्वी द्वारा मारा जाएगा वह अपराध की वंशबेल को तोडऩा चाहती है, परंतु यथार्थ में यह संभव नहीं है। अपराध अनुवांशिक नहीं है। अन्याय और असमानता आधारित व्यवस्था की कोख से अपराध जन्म लेता है। संपूर्ण स्वतंत्रता आदर्श है, परंतु अमीर-गरीब के बीच की खाई को कम तो किया जा सकता है। वर्तमान में तो यह खाई गहरी व विराट होती जा रही है। प्राचीन किताब कहती है कि कुपात्र को दान मत दो, परंतु दान आधारित व्यवस्था को ही तोडऩा होगा। कौन बांधेगा ऊदबिलाव के गले में घंटी?

जयप्रकाश चौकसे
(लेखक वरिष्ठ फिल्म समीक्षक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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