मुझे याद है आज भी वह सर्दी की रात जब लोग अपने घरों में रजाई की गर्माहट का आनंद ले रहे थे मैं भी सोच रही थी किसी की दास्तान को.क्या यही रिश्तों का बंधन है। क्या यही रह जाता है बाकी उफ़ ! उस रात भगवान ऐसा ना करें किसी के लिए ना तरसे कोई आदमी उस वत अपनों के लिए, अपनी ही उम्मीदें पूरा करने के लिए जब उसका जीवन अंतिम मोड़ पर आकर आखिरी सांसें गिन रहा हो। कुछ ऐसा ही हुआ था उस औरत के साथ जिसका नाम तो सुखदेवी था लेकिन जिसके जीवन में सुख को कभी महसूस करने की जगह ही नहीं थी। उसके जीवन की हर उम्मीद तो गम की नदियों में डूबी हुई थी। अपने मायके को छोड़कर ससुराल गए कुछ ही साल बीते थे कि पति की एक दुर्घटना में मौत हो गई। सुखदेवी के तो जैसे जीवन में अमावस्या की काली रात अंधकार को लेकर मुंह खोले ऑन खड़ी हो गई हो । अब घर में सुख देवी और उसका सिर्फ 1 साल का बेटा, साथ में गरीबी और तन्हाई रह गई थी। जैसे-तैसे मेहनत मजदूरी करके कपड़े सीकर वह अपनी गुजर-बसर करने लगी। लेकिन अपने पुत्र को हर खुशी,हर सुविधा, अच्छी पढ़ाई दिलाई।
एक दिन वह भी आया जब उसका बेटा इंजीनियर के पद पर खड़ा हो गया। बेटे को अच्छी नौकरी भी मिल गई थी पर सुखदेवी के सब सपने सिर्फ इत्तेफाक बनके आंखों में ही बसे रह गए। बेटे ने अपनी पसंद से साथ में नौकरी करने वाली लड़की से शादी भी कर ली। लेकिन सुखदेवी को दुख था तो बस इस बात का कि उसके बेटे ने मां को बताना जरूरी भी नहीं समझा। यही सोच- सोच कर सुखदेवी की हालत खराब थी। उसके हृदय से दर्द की लहरें आंखों में आंसू बनकर आते लेकिन वह आंसुओं को गले से उतार लेती एक तरफ जहां अपने दुख को दबाए बैठी रहती तो वही दूसरी ओर लोगों की सोच और विचार से बचने के लिए खामोश भी रहती। बात तब की है जब उसकी उम्र 70 साल पार चुकी थी। तो भी उसका बेटा बहू जिनका आज एक परिवार था उसके साथ कोई नहीं था। एक दिन सुखदेवी की बुढ़ापे की बीमारी ज्यादा ही बढ़ गई उसके पास देखरेख करने वाले सिर्फ उसके पड़ोसी थे। किसी ने कहा उसके बेटे को फोन कर दो क्योंकि वह जिसे बार-बार याद कर रही थी वह उसका बेटा था।
पड़ोसियों ने उसके बेटे के पास फोन किया तो बेटे ने कहादेखिए आप किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा दीजिए मैं आपका खर्च दे दूंगा। लेकिन सुखदेवी को किसी डॉक्टर की जरूरत नहीं थी उसकी आखिरी इच्छा तो केवल एक बार अपने बेटे को देखने की थी जिसने नौकरी लगने के बाद मां को मिलना जरूरी ही नहीं समझा था । सुखदेवी की हालत में कोई सुधार न था उसका चेहरा पीला पड़ चुका था आंखों की चमक खत्म हो चुकी थी मानो कोई अजनबी पक्षी अपने साथियों से बिछड़ कर किसी अनजान जगह पर भटक रहा हो वह महसूस कर रही थी एक बार और फोन करो मेरा बेटा जरूर आएगा। मेरा बेटा जरूर आएगा। फोन को सुनकर बेटा आया लेकिन मां तो बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी । आंखे बंद हो चुकी थी। नब्ज जैसे रुकती जा रही हो पूरा घर लोगों से भरा हुआ था।
सुखदेवी के चारों ओर औरतें जमा थी जैसे उसके कानों में बेटे की आने की आवाज पड़ी तो तो ना जाने उसमें कहां से इतनी हिम्मत आई जो औरत महीने भर से बिस्तर से नहीं उठ पा रही थी जिसने हफ्ते भर से पानी की एक बूंद तक नहीं पी हो, वह चौक कर उठी। बाहों को फैलाकर बोली बेटा मेरी गोद में आजा। बेटा मां के पास गया जरूर लेकिन उठ कर उन लोगों ने से उलझ पड़ा जिन्होंने उसके पास फोन किया था। बोला क्या हुआ मेरी मां तो बिल्कुल ठीक है तुम्हें पता भी है मैं अपना कितना जरूरी काम छोड़ कर आया हूं। बेटा उनसे कह रहा था कि मां ने दम तोड़ दिया और आखरी सांस में भी बेटे का नाम लेकर। उस वक्त चारों और खामोशी थी। रोने वाला अकेला उसका बेटा था और उसे नसीहत देने वाले उसके पड़ोसी।
अंजू चौधरी
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार है, ये उनके निजी विचार हैं)