देश में छाई आर्थिक सुस्ती दूर करने के गरज से रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने एक बार फिर अपने नीतिगत दरों में बदलाव किया है। 0.25 बेसिस प्वाइंट्स की कटौती से नई दर 5.15 फीसदी पर हो गई है। उम्मीद है कि पांचवी बार हुए इस बदलाव से त्यौहारी सीजन में मांग बढ़ेगी। नवरात्र चल रहा है, इसी माह दीपावली भी है। ऐसे अवसरों पर खरीदारी बढ़ाने की गरज से यह कदम उठाया गया है। इसका बाजार पर कितना सकारात्मक असर पड़ता है, इससे तय होगा कोशिशें सही दिशा में हैं। खुद आरबीआई मान रही है कि पहले भी हुई कोशिशें बाजार में मांग बढ़ाने के लिए थीं। सरकार की तरफ से इसीलिए जीएसटी की दरों में बदलाव किया गया था। कारपोरेट घरानों की मांगों पर ध्यान देते हुए करों में क मी की गई थी। बैंकिंग सेक्टरों में पूंजी तरलता बढ़ाई गई थी ताकि लोगों को ज्यादा से ज्यादा कर्ज बांटा जा सके। इसके बावजूद विभिन्न सेक्टरों में बिक्री के आंकड़े उत्साहवर्धक नहीं रहे। खासकर आटोमोबाइल सेक्टर में छूट का ऑफर देने के बाद भी गाडिय़ों की बुकिंग उस रफ्तार से नहीं हो रही है, जैसी उम्मीद की जा रही थी, हालांकि अभी किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी फिर भी इतना कहा जा सकता है कि सुस्ती के हालात बरकरार हैं।
शायद यही वजह है कि वर्ष 2019-20 के लिए जीडीपी अनुमान को घटाक र 6.1 फीसदी कर दिया गया है। इस सबके बीच असल सवाल यह है कि कर्ज कितना भी सस्ता कर दिया जाए, उसका लाभ तो वो ही ले पाएगा जिसके पास मूलभूत जरूरतों से इतर हाथ में कुछ पैसा होगा। अकेले सरकारी तबके के बदौलत तो बाजार की सुस्ती नहीं दूर की जा सकती। कमोवेश स्थिति यही है, संगठित और असंगठित क्षेत्र से जुड़ा एक बड़ा तबका छंटनी और कम पगार का दंश झेल रहा है। ऐसी स्थिति में जीवनयापन के लिए उसे अपनी जरूरतों में भी कटौती करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। लिहाजा इस तबके से त्यौहारी छूट या बह्यपर ऑफर का लाभ उठाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। जहां तक बैंकों से सस्ते क र्ज मिलने का सवाल है तो उस दर से कम आय वालों की बजाय बड़ी आय वालों को तरजीह मिलती है। बेशक औद्योगिक घरानों का कारोबार विस्तार पाता है लेकिन आखिरकार कब तक ? उत्पादों का खरीदार तो चाहिए ही तभी मांग और आपूर्ति का चक्र पूरा होगा।
विसंगति यह है कि पूरे परिदृश्य में ग्राहक हाशिये पर है। अच्छी बात यह है कि इस यथार्थ को आरबीआई समझती है। जब तक मांग और निवेश में कमी रहेगी तब तक कमोवेश स्थिति यही रहने वाली है। इसलिए जरूरी है कि मांग बढ़ाने के लिए लोगों की जेब में पैसे भी तो इफरात हों। सस्ते कर्ज के चक्कर में बेशक ब्याज दरों के घटने का फायदा ईएमआई भरने वालों को मिलेगा लेकिन उन बचतकर्ताओं की भी तो सोचिए, कम ब्याज पाने से बचत योजनाओं में रूचि घट सकती है। ये छोटी-छोटी बचत से घरेलू स्तर पर एक बड़ा अप्रत्यक्ष निवेश होता रहा है, अब उसमें भी कमी आने लगी है। दूसरा रास्ता सुस्ती दूर करने का विदेशी पूंजी निवेश है तो मंदी के जो वैश्विक हालात अमेरिका-चीन के मध्य ट्रेड वार से पैदा हुए हैं, उसमें अभी इतनी अस्थिरता और अनिश्चितता है कि जल्दी से कोई अपनी पूंजी भारत में भी नहीं फंसाना चाहता हालांकि प्रधानमंत्री ने अपने अमेरिका दौरे में पूंजी निवेश के लिए मजबूत पैरवी और ब्राडिंग की थी।