भीड़ की हिंसा को नियंत्रित करने में सरकारें विफल

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भीड़ की हिंसा को लेकर इधर भारत के बुद्धिजीवी और कलाकार दो खेमों में बंट गए हैं। एक खेमा सारा दोष सरकार के मत्थे मढ़ रहा है और दूसरा खेमा सरकार को निर्दोष सिद्ध करते हुए दिखाई पड़ रहा है। मैं समझता हूं कि यह मामला इतना गंभीर है कि इस पर दो खेमे होना ही नहीं चाहिए। देश के सभी बुद्धिजीवियों और कलाकारों को एक स्वर में भीड़ की हिंसा की निंदा करनी चाहिए और उसको रोकने के लिए सरकार और समाज पर दबाव डालना चाहिए।

भारत- जैसे उदार और लोकतांत्रिक देश में गाय के नाम पर किसी की हत्या हो जाए और किसी मुसलमान या ईसाई को मार-मारकर ‘जयश्रीराम’ बुलवाया जाए, इससे ज्यादा शर्मनाक बात क्या हो सकती है ? गोहत्या या किसी अन्य अपराध पर कानूनी कार्रवाई हो, वहां तक तो ठीक है लेकिन कोई निरंकुश भीड़ जरा-सी शंका होते ही किसी पर गोहत्या या धर्म-परिवर्तन का आरोप लगाकर उसकी हत्या कर दे और उस भीड़ का बाल भी बांका न हो तो फिर सरकार और पुलिस किस मर्ज की दवा है ?

यह ठीक है कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ के पदाधिकारियों ने ऐसी घटनाओं की निंदा की है और यह भी सत्य है कि उनकी इस निंदा का इन हत्यारों पर कोई असर नहीं दिखाई पड़ता है लेकिन सरकार इस तरह की सामूहिक हिंसा के विरुद्ध कोई कठोर कानून क्यों नहीं बनाती ? सर्वोच्च न्यायालय की झिड़कियां खाने के बाद केंद्र और राज्यों की सरकारों ने अभी तक कोई पहल क्यों नहीं की ? यह भी ठीक है कि 130 करोड़ लोगों के इस विशाल देश में ऐसी छुट-पुट घटनाएं कई होती हैं लेकिन हम ज़रा यह भी सोचें कि ऐसी घटनाओं से करोड़ों अ-हिंदुओं के दिल में कितना डर पैदा होता है और अपने देश की दुनिया में कितनी बदनामी होती है।

भीड़ की हिंसा के शिकार सिर्फ मुसलमान और ईसाई ही होते हैं, ऐसा भी नहीं है। हिंदू आदिवासी, अनुसूचित, पिछड़े और कमजोर सवर्णों पर भी भीड़ टूट पड़ती है और पुलिस खड़ी-खड़ी देखती रहती है। ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने कानून बनाने के साथ-साथ कई अन्य निर्देश भी दिए हैं लेकिन केंद्र और सभी पार्टियों की राज्य सरकारें इस मुद्दे पर कुंभकर्ण की तरह खर्राटे खींच रही हैं।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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