दुनिया में नए शीतयुद्ध की आहट काफी समय से सुनी जा रही थी। अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस शीतयुद्ध का नगाड़ा बजाया था। उन्होंने चीन के खिलाफ ऐसा मोर्चा खोला कि जो कुछ ढका-छिपा था वह सामने आ गया। कोरोना वायरस के संक्रमण ने चीन को और एसपोज किया तो दक्षिण चीन सागर में दूसरे संप्रभु देशों की सीमा के अतिक्रमण और भारत की जमीनी सीमा में उसकी आक्रामक विस्तारवादी नीति ने उसके इरादे भी जाहिर कर दिए। सो, अब पाला खींच गया है। एक तरफ अमेरिका है, जो पहले भी शीतयुद्ध के समय एक धुरी था और दूसरी ओर रूस की जगह चीन आ गया है। इस बार फर्क यह है कि अमेरिका और रूस का शीतयुद्ध काफी हद तक नूरा कुश्ती की तरह था। कई जानकारों ने लिखा और कहा भी कि अमेरिका ने ही रूस का हौव्वा खड़ा किया था वरना रूस की कभी ऐसी हैसियत नहीं रही कि वह अमेरिका को चुनौती दे। परंतु इस बार चीन की चुनौती गंभीर है और सिर्फ अमेरिका के लिए नहीं, बल्कि उसके अनेक सहयोगी देशों के लिए भी। इस बार के शीतयुद्ध की दूसरी खास बात यह है कि बिना चाहे ही भारत इसका हिस्सा बन गया है। कह सकते हैं कि शीतयुद्ध भारत के दरवाजे तक पहुंच गया है। इसके दो प्राथमिक और बुनियादी कारण हैं।
पहला कारण तो यह है कि भारत संयोग क्या दुर्योग से चीन का पड़ोसी है। दशकों पहले हुई गलती क्या लापरवाही से तिब्बत पर चीन ने कब्जा कर लिया और तिब्बत की बजाय चीन हमारा पड़ोसी बन गया। सो, पड़ोसी देश कुछ भी करेगा तो उसका स्वाभाविक रूप से असर भारत पर पड़ेगा। दूसरा कारण यह है कि भारत पिछले कुछ समय में गुट निरपेक्षता की अपनी पुरानी नीति से दूर होकर अमेरिका के बहुत करीब पहुंच गया है। यह प्रक्रिया सोवियत संघ के विखंडन और पहला शीतयुद्ध खत्म होने के साथ ही शुरू हो गई थी। यह संयोग है कि जिस समय रूस विखंडित हुआ उसी समय भारत में पीवी नरसिंह राव की सरकार बनी और उन्होंने विदेश नीति में गुटनिरपेक्षता और आर्थिक नीति में मिश्रित अर्थव्यवस्था की समाजवादी नीति को वैसे ही लाल कपड़े में लपेट कर पूजा की जगह पर रख दिया, जैसे हर भारतीय घरों में रामचरितमानस रखी होती है। उसे सर आंखों से लगाते सब हैं, लेकिन पढ़ता कोई नहीं है। सब जानते हैं कि बाजार की अर्थव्यवस्था बुनियादी रूप से यूनिवर्सल अमेरिकनाइजेशन का पर्याय है। तभी बाजार के साथ साथ भारत हर मामले में अमेरिका के साथ जुड़ता चला गया, जिसकी अंत परिणति नरसिंह राव के शिष्य मनमोहन सिंह के कार्यकाल में परमाणु संधि के साथ हुई।
अमेरिका से भारत की करीबी ने भारत को स्वाभाविक रूप से दुनिया के सोशलिस्ट ब्लॉक वाले देशों से दूर किया, जिसमें रूस भी है और चीन भी। पहले शीतयुद्ध के समय रूस की नीति रहती थी कि अमेरिका के सहयोगी क्या करीबी देशों को नुकसान पहुंचाया जाए। इस बार शीतयुद्ध में यहीं काम चीन कर रहा है और उसके सामने सबसे आसान अमेरिकी सहयोगी देश भारत है, जिसे परेशान करने की नीति पर वह काम कर रहा है। पहले 2017 में डोकलाम में और फिर 2020 में पूर्वी लद्दाख में कई जगहों पर चीन ने जो घुसपैठ की है क्या भारतीय सैनिकों से झड़प की है वह भारत की जमीन कब्जा करने की उसकी सैन्य रणनीति भर नहीं है, बल्कि वह भारत को परेशान करने और अमेरिका पर दबाव बनाए रखने की लंबी कूटनीतिक रणनीति का हिस्सा है। अमेरिका के साथ भारत के संबंधों पर जो झीना सा परदा था वह भी वाड के गठन के साथ ही उतर गया। चार देशों- अमेरिका, भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान के समूह क्वाड के गठन से भारत को और कुछ हासिल हुआ हो या नहीं लेकिन वह नए दौर के शीतयुद्ध में अमेरिकी धुरी का एक हिस्सा बन गया है। वाड की पहली इन पर्सन बैठक यानी चारों देशों के शासन प्रमुखों की आमने-सामने की पहली बैठक 24 सितंबर को अमेरिका में होनी है और उससे पहले अमेरिका ने एक और नए समूह का गठन कर दिया है।
यह एयूकेयूएस समूह है, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका शामिल हैं। सवाल है कि क्वाड के होते हुए इस नए समूह की या जरूरत थी? वाड से पहले एएनजेडयूएस यानी ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और अमेरिका का एक समूह और बना था, उसकी क्या भूमिका होगी? यह भी सवाल है कि हिंद-प्रशांत के क्षेत्र में ब्रिटेन क्या भूमिका निभाएगा? ब्रेजिट के बाद वैसे भी ब्रिटेन अलग-थलग हुआ है और विश्व कूटनीति में उसकी कोई बड़ी भूमिका नहीं दिख रही है। इस नए समूह के गठन का तात्कालिक लाभ तो अमेरिका को मिल गया है। उसने फ्रांस से सौदा रद्द कर दिया है और परमाणु सक्षम पनडुब्बी का सौदा अमेरिका को मिल गया। सवालों के जवाब आसान नहीं हैं। ऑस्ट्रेलिया को परमाणु सक्षम पनडुब्बी देने का ऐलान किया। वह ऑस्ट्रेलिया को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, साइबर वारफेयर, क्वांटम कंप्यूटिंग आदि के क्षेत्र में भी मदद करेगा। तीन देशों के इस नए गठबंधन की घोषणा करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने चीन का नाम लिए बना कहा कि तेजी से उभर रही चुनौतियों और नए खतरों से निपटने के लिए ऐसा किया गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि नया खतरा या है! नया खतरा चीन है और उससे लडऩे के लिए अमेरिका भारत की सीमा तक आ गया है। पारंपरिक युद्ध भले न हो लेकिन भारत को मजबूरी में ही सही इस टकराव का हिस्सा बनना होगा। एशिया-प्रशांत को हिंद-प्रशांत का नाम देकर दुनिया की बड़ी ताकतों ने भारत को पहले ही इसका हिस्सा बना दिया है।
दूसरी ओर पहले से सशंकित चीन को यकीन करने का कारण मिल गया है कि भारत उसका विरोधी है और एंग्लोस्फियर यानी पश्चिम के अंग्रेज देशों का साझीदार है। एएनजेडयूएस, क्वाड और एयूकेयूएस जैसे संगठनों की चिंता किए बगैर वह दक्षिण चीन सागर में अपना विस्तार कर रहा है। वह कृत्रिम द्वीप बना रहा है और वहां एयरबेस तैयार कर रहा है। भारत की सीमा में घुस कर जमीन हड़प रहा है और स्थायी तनाव पैदा किया है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के साथ उसकी दोस्ती भारत के लिए सीमा पर नई चुनौतियां पैदा करेंगी। बदले में भारत को क्या मिलेगा यह नहीं कहा जा सकता है। भारत का परमाणु अलगाव 2008 में अमेरिका के साथ हुए परमाणु समझौते से दूर हो गया था लेकिन भारत को अभी अमेरिका से वैसी कोई तकनीक नहीं मिली है, जैसी उसने ऑस्ट्रेलिया को दी है। भारत के लिए दूसरी मुश्किल यह है कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के नए समूह को लेकर यूरोप में बड़ा विवाद मचा है। फ्रांस ने बहुत बड़ा कदम उठाते हुए अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से अपने राजदूत वापस बुला लिए हैं। भारत के लिए आगे यह दुविधा होगी कि वह फ्रांस व अन्य यूरोपीय देशों के साथ बेहतर संबंध रखते हुए इस नए गठजोड़ के साथ कैसे आगे बढ़े? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका दौरे में राष्ट्रपति बाइडेन के अलावा ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन और जापान के प्रधानमंत्री योशीहिदे सुगा से भी मिलेंगे। उम्मीद करनी चाहिए कि इन मुलाकातों में भारत की मुश्किलों का कुछ समाधान निकलेगा।
अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)