बेरोजगारी लाइलाज बीमारी

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साल 2018-19 में साल 2010-11 के बाद से इस योजना के तहत व्यक्ति कार्य दिवस की सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई। व्यक्ति कार्य दिवस का मतलब यह है कि मनरेगा के तहत कार्यरत किसी एक व्यक्ति को साल में कितने दिन रोजगार मिला। मौजूदा वित्त वर्ष (25 मार्च तक) में मनरेगा के तहत 255 करोड़ व्यक्ति कार्य दिवस पैदा किया गया।

भारत 2018 के आंकड़े दिखाते है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत नौकरियों की मांग बढ़ोतरी हुई। सरकारी आंकड़ो के अनुसार 2018-19 में 2017-18 की तुलना में काम की मांग में 10 फीसदी की बढ़ोतरी हुई इसके साथ ही साल 2018-19 में साल 2010-11 के बाद से इस योजना के तहत व्यक्ति कार्य दिवस की सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई। व्यक्ति कार्य दिवस का मतलब यह है कि मनरेगा के तहत कार्यरत किसी एक व्यक्ति को साल में कितने दिन रोजगार मिला।

मौजूदा वित्त वर्ष (25 मार्च तक) में मनरेगा के तहत 255 करोड़ व्यक्ति कार्य दिवस पैदा किया गया। उसके और भी बढ़ने की संभावना है। आंकड़े दिखातें है कि इस योजना के तहत 2017-18 में 233 करोड़ व्यक्ति कार्य दिवस पैदा हुआ था। 2016-17 और 2015-16 में 235 करोड़ व्यक्ति कार्य दिवस पैदा हुआ। मौजूदा मोदी सरकार के कार्यकाल के पहले साल 2014-15 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मनरेगा को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि वह यूपीए सरकार की विफलता का जीता-जागता सबूत है। उस साल मात्र 166 करोड़ व्यक्ति कार्य दिवस पैदा हुआ था। इस योजना के तहत सामान्य तौर पर एक व्यक्ति कार्य दिवस की इकाई का मतलब आठ घंटे का काम होता है।

योजना को लागू करने वाले सरकारी अधिकारी मनरेगा के तरह व्यक्ति कार्य दिवस बढ़ने का कारण सूखा या बाढ़ जैसे जलवायु परिवर्तन से संबंधित घटनाओं को बताते हैं, जो खेती से होने वाली आय में नुकसान का मुख्य कारण बनते हैं। वही योजना की जमीनी स्थिति पर निगरानी रखने वाले बताते है कि यह वृद्धि मनरेगा का काम बेरोजगारी की मसग्र स्थिति को भी दर्शाता है।

मनरेगा एक मांग आधारित सामाजिक सुरक्षा योजना है, यो प्रति ग्रामीण घर को 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराता है। लेकिन सूखा, बाढ़ या अन्य समान आपदाओं के मामले में कार्य दिवस की संख्या को बढ़ाकर सालाना 150 दिन किया जा सकता है। जानकारों के मुताबिक बेरोजगारी के कारण मनरेगा के काम की भारी मांग है। लेकिन आंकड़े दिखाते हैं कि 2018-19 में प्रत्येक परिवार को सालाना औसतन 49 दिन का ही रोजगार मिल सका जो कि पिछले सालों की तुलना में अधिक है। इसके बावजूद सरकार यह दावा करती रही है करोड़ो की संख्या में रोजगार पैदा हुए हैं। क्या अब इस दावे पर किसी को यकीन होगा? आखिर बेरोजगारी का कोई इलाज क्यों नहीं तलाशा जाता या फिर सियासत ये कह दे कि ये लाइजलाज बीमारी है, सच तो यही है।

रविन्द्र कुमार
लेखक पत्रकार है

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