बेचैन दुनिया और चीन की अकड़: झासों से जमीनी हकीकत कतई नहीं बदलती

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धंधे और पैसे की वैश्विक दुनिया घायल है। दीवाल पर मंदी लिख गई है। दुनिया की आर्थिकी को चलाने वाले देशों के केंद्रीय बैंक ब्याज दर ऐसे घटा रहे है कि बांड्स में पैसा लगाना भी फायदेमंद व सुरक्षित नहीं रहा। उधर शेयर बाजारों के बाजार याकि अमेरिका की वॉल स्ट्रीट में पिछले सप्ताह भारी गिरावट ने वह कंपकंपी बनाई कि लंदन, बॉन. टोक्यों, हांगकाग, सिंगापुर सभी में शेयर बाजार लड़खड़ाए। पिछले ही सप्ताह अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिद्दी सांड की फितरत में चाईना शॉप में फिर उत्पात किया। अमेरिका के वित्त मंत्री ने आधिकारिक तौर पर चीन को ‘करेंसी मैनिपुलेटर’ करार दे कर करेंसी युआन को जानबूझ कर सस्ता बनाने वाला, व्यापार में ” अनुचित प्रतिस्पर्धी लाभ ” लेने वाला मवाली देश बताया। पलट कर चीन ने जवाब दिया कि उसे अमेरिकी फैसले की परवाह नहीं है। साथ ही अमेरिकी प्रशासन और दुनिया को आंकड़ा जारी कर यह अकड़ दिखाई कि उलटे उसका निर्यात बढ़ा है! सो अमेरिका और चीन की कारोबारी जंग में दोनों तरफ अकड़ से एक -दूसरे पर वार जारी है। तभी वैश्विक लेन-देन, खरीदफरोखत याकि विश्व बाजार में अनिश्चितता और मंदी दोनों पसर रहे हंै। उधर ईरान के साथ अमेरिकी पंगेबाजी और योरोपीय संघ से ब्रिटेन के बिना समझौते के अलग होने की निकट आती घड़ी ने भी धंधे और विकास में धीमापन बनवा दिया है।

इस सबका भारत के लिए, हम-आपके लिए क्या अर्थ है? वही जो नोटबंदी के बाद से बना हुआ है! दुनिया में नेताओं की सनक, रीति-नीति ने भूमंडलीकरण और वैश्विक व्यापार व विकास की नैसर्गिक-स्वंयस्फूर्त उर्जा पर जैसे हाल में ढक्कन लगाया है वैसा भारत में 2015 में नोटबंदी के बाद से है। उस नाते भारत आने वाले महीनों, सालों में दोहरी मार से जूझने वाला है। भारत भी रीति-नीति में जबरदस्ती- झूठ का वही सिलसिला लिए है जो अमेरिका में ट्रंप या चीन में शी आदि तमाम नेताओं का है। ये भी वैसे ही केंद्रीय बैंकों से ब्याज दर घटवा रहे है, करेंसी सस्ती बनवा रहे हंै जैसा भारत का रिर्जव बैंक लगातार कर रहा है।

क्यों? ताकि मांग बने। पैसा खर्च हो। निवेश होने लगे। निर्यात बढ़े। आर्थिकी में गतिविधी बने। हलचल बने। उद्यमशीलता भभका पाए। लेकिन कोई कितनी ही कोशिश कर ले, वैसा भभका तो आने वाले दो-चार सालों में नहीं बनने वाला है जैसा भारत में आठ साल पहले था या दुनिया में इस सदी में पहले दशक से बना था। नेताओं से दुनिया और देश कैसे बरबाद होते है, विकास के चक्के कैसे थम जाते है, यह राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या चीन के राष्ट्रपति शी और ब्रितानी प्रधानमंत्रियों की जिद्द से इन दिनों हर दिन प्रमाणित हो रहा है। गौरतलब समानता है कि कोई राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री मानने को तैयार नहीं है कि उनके कारण बरबादी है और खुद उनके हित में है कि अनुभव के बाद तो रवैया बदले, कोर्स करेक्शन हो। डोनाल्ड ट्रंप का एक साल बाद वापिस चुनाव है और वे अमेरिकी जनता को लगातार कह रहे है कि उनके चलते विकास हो रहा है, रोजगार बढ़ गए है और उन्होने चीन को, उत्तर कोरिया को, ईरान को सुधार दिया है। मतलब दुनिया में उनका जलवा है और दुनिया उनके आगे झुकी हुई है।

यही रूख अपने प्रधानमंत्री मोदी का है, राष्ट्रपति शी का है तो ब्रिटेन में अब बारिस जॉनसन का है। बॉरिस ने जिद्द पकड ली है कि यदि करार के साथ ब्रेक्सिट न हो तो भी कोई बात नहीं, ब्रिटेन 31 अक्टूबर को योरोपीय संघ से बाहर होगा। इसका मतलब है ब्रितानी आर्थिकी का बरबादी व अनिश्चितताओं मे लुढ़कना। जान ले कि पाउंड करेंसी गिरावट के पैंदे छू रही है। यही स्थिति चीन की करेंसी और दुनिया की कई करेंसियों की है। चीन झूठे स्टेंड लिए हुए है कि उलटे उसका निर्यात बढ़ा या अमेरिकी दबिस का उस पर कोई असर नहीं है। पिछले ही महिने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने चीन पर असर होने और उसकी विकास दर के घटे अनुमान घोषित किए है। वैसा ही भारत के लिए कहा तो ब्रिटेन या दुनिया के उन देशों के लिए भी कहा जो झूठी अकड़ में जी रहे है और दुनिया को मंदी की और धकेल रहे है।

कुछ जानकारों का मानना है कि ट्रंप अब अमेरिकी किसानों, उद्योगपतियों, कारोबारियों, उपभोक्ताओं के दबाव में है। इन सबके लिए चीन से धंधा घटना या उसके साथ व्यापारी जंग अंततः घाटे का सौदा है सो वे अचानक एक दिन चीन से सुलह कर लेंगे। मैं चीन के मामले में डोनाल्ड ट्रंप का मुरीद हूं। अपनी थीसिस है कि विश्व नेताओं की लापरवाही से चीन ने वैश्विक बाजार में अपनी जो एकछत्रता बनाई थी उसे तोड़ने में ट्रंप ने गजब हिम्मत दिखाई। लेकिन चीन इतना कमा चुका है, उसका विदेशी करेंसी का भंडार इतना बड़ा है कि वह सालों अपनी करेंसी को सस्ता बना कर दुनिया को अपना सस्ता सामान बेचता रह सकता है। ऐसे में अंततः लोकतांत्रिक-लिबरल देश बनाम तानाशाह देश की तासीर जंग में निर्णायक फैसला कराती है। ट्रंप को चुनाव लड़ना है तो वे नर्वस हो सकते है। अपने किसानों, कारोबारियों को खुश करने के लिए चीन को अचानक पटाने की कोशिश कर सकते है। मतलब चीन ने अमेरिका से खाद्य पैदावार खरीदना शुरू किया तो बदले में ट्रंप रियायत देंगे।

सो अमेरिका में चुनाव ज्यों-ज्यों करीब आ रहा है त्यों-त्यों डोनाल्ड ट्रंप को समझ आ रहा होगा कि चीन से अचानक व्यापारी समझौता कर उसे सदी का ऐतेहासिक समझौता करार दे कर अमेरिकी मतदाताओं को मूर्ख बनाया जाए। ऐसे ही वे ईरान और उत्तर कोरिया आदि से भी सुलह या अपनी उपलब्धि दिखलाने का झांसा बना सकते है।

लेकिन झांसों से जमीनी हकीकत नहीं बदलती। दुनिया मंदी की और बढ़ चुकी है। चीन की आर्थिकी खोखली हो रही है। व्यापार की जंग के साथ करेंसी जंग अघोषित तौर पर अब शेयर बाजारों को प्रभावित कर रही है। स्वतंत्र व्यापार का सबसे बडा वैश्विक बाजार याकि योरोपीय संघ टूटने-बिखरने के कगार पर है। पूरे एक साल अमेरिका चुनावी गहमागहमी में रहेगा तो निर्णायक आर्थिकी फैसले याकि चीन को ट्रंप द्वारा रियायत देना याकि थूक कर चाटना अपने को संभव नहीं लगता। फिर सोचे कि यदि डोनाल्ड ट्रंप वापिस जीत गए तो वे अपनी उपलब्धि में आगे क्या यह नहीं सोचेगें कि चीन को ठोकना अमेरिकीयों को पसंद आया तो वही नीति आगे जारी।

फिलहाल ट्रंप प्रशासन डालर को सस्ता बनाने की हर संभव कोशिश कर रहा है तो उसके आगे चीन भी अपने करेंसी को सस्ता बना रहा है। एक डालर के मुकाबले चीनी युआन का 6.7 युआन पर आ जाना ट्रंप प्रशासन के लिए विकट चुनौती है। निश्तिच ही डालर- युआन की करेंसी रेट की जंग में बाकि करेंसियों भी प्रभावित होगी।

पहले अनुमान था कि जी-20 की ओसाका बैठक के बाद ट्रंप और शी में सौदा पटेगा। बीच का रास्ता निकलेगा लेकिन पिछले सप्ताह अमेरिका-चीन के बीच जो हुआ, वैश्विक शेयर बाजार को जो झटका लगा तो मान लेना चाहिए कि दुनिया मंदी और अनिश्चितता के रास्ते पर बहुत आगे बढ़ गई है। इस वैश्विक मंदी की दशा-दिशा में हम भारतीयों का, भारत की आर्थिकी का सत्य है कि एक तो करेला और ऊपर से नीम चढ़ा!

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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