जीडीपी की दर 5 फ़ीसदी पर आ गई है। लाखों लोगों को नौकरी नहीं मिल रही है। मैं सिर्फ इसलिए नहीं हंस सकता कि नरेंद्र मोदी की सरकार आर्थिक मोर्चे पर असफ़ल रही है। इसका असर मुझ पर भी पड़ेगा, किसी के घर में अंधेरा होगा। आपकी हंसी आपके भीतर अंधेरा पैदा कर देगी। 2014 के बाद से ख़ुद को अर्थव्यवस्था को समझने की दिशा में मोड़ ले गया। मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां अच्छी या बुरी हो सकती हैं, इस पर बहस हो सकती है मगर साढ़े पांच साल तक यही दिखा कि उनके नतीजे बोगस हैं। सरकार के अपने ही गढ़े हुए सारे नारे छोड़ दिए हैं। स्किल इंडिया की हालत यह है कि अब इसे प्रतियोगिता में बदला जा रहा है। यह भी फेल साबित हुआ। मेक इन इंडिया की हालत पर कोई बात नहीं करता। हम निर्यात की जगह आयात करने वाले मुल्क में बदल गए। मैन्यूफैक्चरिंग 0.6 प्रतिशत पर आ गया है।
मैं आज भी मानता हूं कि नोटबंदी का फ़ैसला राष्ट्रीय अपराध था। लोगों ने भी हंसी में उड़ा दिया। प्रधानमंत्री मोदी के प्रभाव और उनकी विचारधारा से लैस व्यापारी वर्ग और उनके भय से आक्रांत उद्योग जगत इस सच को पचा गया। विपक्ष मे नैतिक बल नहीं है। वह अपनी अनैतिकताओं से दबा हुआ है। इसलिए सत्ता पक्ष की हर अनैतिकता बग़ैर किसी जवाब के स्वीकार कर ली जा रही है। नोटबंदी को सफल बनाने की वैसी ही दलील दी जाती रही जैसे कश्मीर को लेकर दी जाती है। जैसे वहां 50 कालेज खोलने और दुकान खोलने के लिए एक भरे पूरे राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया है। एक करोड़ की जनता को सूचनाविहीन अवस्था में डाल दिया गया है। नोटबंदी का नतीजा कहीं नज़र नहीं आता है। दूरगामी परिणाम का सपना दिखाया गया था। तीन साल बाद नोटबंदी के दूरगामी परिणाम भयावह नज़र आने लगे हैं। उसके अगले ही साल उद्योग जगत के निवेश में 60 प्रतिशत की कमी आ गई थी।
नोटबंदी के बाद से ही मंदी आने लगी थी। आर्थिक मोर्चे पर नए नए ईवेंट किसी खगोलीय घटना की तरह लांच किए जाने लगे। जीएसटी को दूसरी आज़ादी की तरह मनाया गया। उसके असर से आज तक अर्थव्यवस्था उबर नहीं सकी। एक राष्ट्र एक कर का नारा दिया गया। जीएसटी ने सूरत को कहीं का न छोड़ा। वहां का कारोबार आधा से भी कम हो गया है। फिर भी किसी समाजशास्त्री को समझना चाहिए कि वहां के व्यापारियों ने नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ एक नारा तक नहीं लगाया। वे उनके प्रति मन और धन से समर्पित रहे और आगे भी रहेंगे। आज कपड़ा उद्योग कहीं का नहीं रहा। उसकी हालत जर्जर हो चुकी है। इसके बाद भी आवाज़ नहीं है। विरोध नहीं है। है कोई ऐसा नेता जो आर्थिक मोर्चे पर पांच साल असफल होने के बाद भी उसी सेक्टर के दिलों पर एकछत्र राज कर रहा हो। कोई नहीं है।
इसलिए आर्थिक संकट की हर ख़बर में मोदी विरोध की उम्मीद पालने वालों को ख़ुद का ख़्याल रखना चाहिए। मोदी पर हंसने की ज़रूरत नहीं है। आर्थिक मोर्चे पर वे आज पहली बार फेल नहीं हुए हैं। उनके पास कोई नया आइडिया नहीं है। बल्कि विपक्ष के पास भी कोई नया आर्थिक आइडिया नहीं है। आप देखिए नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया की हालत कितनी ख़राब हो चुकी है। नए निर्माण के लिए मना किया जा रहा है और कहा जा रहा है कि अनाप शनाप योजनाओं के कारण कर्ज़ बढ़ा है। ब्लूमबर्ग और लाइव मिंट ने लिखा है कि ख़ुद प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह बात अथॉरिटी से कही है। क्या यह बोध अचानक हुआ? आप याद कीजिए। चैनलों में किस तरह सड़कों के निर्माण का आंकड़ा पेश किया जा रहा था। सच्चाई यह है कि कई हाईवे ऐसे हैं जिनका शिलान्यास ही होता रहा मगर अधूरे पड़े हैं।
बैंकों के भीतर आर्थिक नीतियों के राज़ दफ़न हैं। उन्हें कश्मीर और हिन्दू मुस्लिम के नेशनल सिलेबस ने खा लिया। बैंकर अपनी आंखों से सच्चाई देख रहे थे मगर दिमाग़ पर नशा कुछ और छाया था। नतीजा न सैलरी बढ़ी और न नौकरी बेहतर हुई। काम के हालात बदतर होते चले गए। मैंने कितने सारे लेख लिखे जिसमें कहा कि हर पैमाने से आज के बैंकरों को ग़ुलाम कहा जा सकता है। महालॉगिन डे कुछ और नहीं, दास और ग़ुलाम की तरह बैंकरों की आत्मा की नीलामी है। उल्टा नोटबंदी के समय ये बैंकर समझ रहे थे कि देश के लिए कुछ कर रहे हैं। अपनी जेब से नोटों के गिनने में हुए ग़लती का जुर्माना भरते रहे। बैंकरों को मजबूर किया गया कि लोन लेकर उस बैंक का शेयर ख़रीदें जिनकी सच्चाई वे भीतर काम करते हुए देख रहे थे। आज उनके शेयर डूब चुके हैं। यह पूरी तरह से आर्थिक ग़ुलामी है। नेशनल सिलेबस ने उनके सीने को चौड़ा किया है। वे राजनीतिक रूप से आज पहले से कहीं स्वतंत्र और मुखर हैं। अपने स्मार्ट फोन के व्हाट्स एप में रोज़ नेशनल सिलेबस का टॉनिक पी कर मस्त हैं।
45 साल में सबसे अधिक बेरोज़गारी। यह भी नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता थी कि बेरोज़गारों ने उन्हें अपना मसीहा माना और दिलों जान पर बिठाया। 2013 के साल में नरेंद्र मोदी आबादी के लाभांश की बात कर रहे थे। बता रहे थे कि हमारे पास सबसे अधिक युवा है। यह हमारी ताकत है। 2019 में वे आबादी को समस्या बताने लगे। आप गूगल कर 2013 के बयान निकाल सकते हैं। लोग अब सारा कारण आबादी में ढूंढने लगे हैं। लोग संतुष्ट भी हैं अपने खोजे गए इन कारणों से। पांच साल में किसी यूनिवर्सिटी की स्थिति ठीक नहीं हुई फिर भी नौजवान मोदी मोदी करते रहे। दुनिया के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा नेता हुआ होगा जो शिक्षा और रोज़गार के मामले में ज़ीरो प्रदर्शन करने के बाद भी युवाओं का चहेता बना हो।
अर्थव्यवस्था करवट लेती रहती है। आज ख़राब है तो कल अच्छी भी होगी। मगर 2014 से 2019 के बीच धंसती जा रही थी। सरकार और व्यापार में सबको पता था। इसलिए 2019 में नया सपना लांच किया गया। 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का सपना। हर छह महीने पर भारत को अब नया सपना चाहिए। नरेंद्र मोदी नया सपना ले आते हैं। न्यूज चैनलों को दिख रहा था कि भारत की अर्थव्यवस्था संकट से गुज़र रही है लेकिन उन्हें कश्मीर बहाना मिल गया। जिस तरह शेष भारत के लोग कश्मीर के लोगों की ज़ुबान बंद किए जाने को सही ठहरा रहे हैं उसी तरह वे ख़ुद भी कश्मीर बन गए हैं। उनकी आवाज़ और सही तस्वीर चैनलों पर नज़र नहीं आती है। उनकी आवाज़ नहीं सुनी जाती है। हम जो दूसरों के लिए मंज़ूर करते हैं वह अपने लिए भी मंज़ूर हो जाता है। मीडिया ने आराम से इस हालात को दबा दिया कि अर्थव्यवस्था बैठ चुकी है। मीडिया के भीतर भी छंटनी होने लगी है।
यही बात सुब्रमण्यम स्वामी भी तो कह रहे हैं कि कोई नया आइडिया नहीं है। बीजेपी के सांसद हैं। ट्विट कह रहे हैं कि 5 ट्रिलियन की बात भूल जाइये। न तो ज्ञान है और न ही साहस है। मगर क्या इस सच्चाई से बीजेपी का समर्थक छिटक सकता है? बिल्कुल नहीं। वही स्वामी मंदिर और कश्मीर पर भी तो बयान दे रहे हैं जिससे बीजेपी का समर्थक और करीब आ रहा है। बीजेपी के समर्थकों का मानस आर्थिक सच्चाइयों से नहीं बनता है। उसके यहां अब स्वदेशी का भी ढोंग नहीं है। अगर आपको लगता है कि मंदी और बेरोज़गारी से नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता गिर गई है तो बीजेपी की सदस्यता के नए आंकड़े देखिए। सात करोड़ नए सदस्य बने हैं। यह समझना होगा कि राजनीतिक मानस का निर्माण आर्थिक कारण से ही होता है यह ज़रूरी नहीं। हमेशा नहीं होता है। नरेंद्र मोदी की सफलता राजनीतिक मानस के निर्माण में है। आर्थिक रूप से वे असफ़ल नेता गुजरात में भी थे और अब तक केंद्र भी रहे हैं। यह राजनीतिक मानस किन चीज़ों से बनता है, उसे जीडीपी के 5 फीसदी की दर से नहीं समझा जाना चाहिए।
इसलिए प्रार्थना कीजिए कि अर्थव्यवस्था पटरी पर आए और सबकी नौकरी बनी रहे। मोदी विरोधी और समर्थक दोनों की। नौकरी जाने पर मोदी समर्थकों के पास जीने के कई बहाने हैं। कश्मीर है, नेशनल सिलेबस है। मोदी विरोधियों के पास कुछ नहीं है। नेशनल सिलेबस भी नहीं है। उसकी कोई सुनने वाला भी नहीं होगा। उनके लिए यह बेरोज़गारी बीमारी लेकर आने वाली है। इसलिए जीडीपी के खराब आंकड़ों पर हंसिए मत।
रवीश कुमार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके विनी विचार हैं…