बहुसंख्यकवादी राष्ट्र बनने की ओर

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एक नागरिकता कानून (सीएए) और नागरिक होने की प्रामाणिकता (एनपीआर और एनआरसी) को लेकर चल रही बहस ने आधुनिक भारत के आधारभूत विचार पर आरोपित किए जा रहे नए प्रारूप को एक बेरहम रोशनी में हमारे सामने पेश कर दिया है। वैसे यह प्रारूप इतना नया भी नहीं है। अस्सी के दशक से ही यह भारत के आधारभूत विचार में धीरे-धीरे सेंध लगा रहा था। सेंधमारी करने वाली शक्तियां उस समय सुपरिभाषित रूप से हिंदुत्ववादी नहीं थीं, पर केवल उनके वस्त्र ही सफेद थे। उनमें और पिछले साढ़े पांच साल में चले सिलसिले में अंतर केवल यह है कि अब इस सेंध ने पूरी दीवार ही गिरा दी है। जो रिसाव था, वह अब प्रवाह में बदल गया है। हिंदुत्व के नाम पर व्यागयायित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारत के विचार पर लगभग पूरी तरह छा गया है। हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली बीजेपी मजबूती से सत्ता में है, लेकिन चुनावी राजनीति के उतार-चढ़ाव के कारण इस दल के सत्ता से हटने की सूरत में भी भारत के विचार को उत्तरोत्तर हिंदुत्वमय होने से रोकने की संभावनाएं शेष नहीं रहने वाली।

कुल मिला कर देश का अगला दशक बिना किसी संकोच के बहुसंख्यक वादी दशक होगा। संविधान अपनी जगह रहेगा, लेकिन, उसकी कृति के रूप में भारतीय राज्य और समाज केवल शब्दों में उसकी नुमाइंदगी करते दिखेंगे। हिन्दुत्व के हाथों पलटा जा रहा भारत का बुनियादी विचार उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के दौरान परवान चढ़ा था। उसकी शकल-सूरत बीसवीं सदी की शुरुआत में उभरी चार राष्ट्रव्यापी वैचारिक कल्पनाओं के बीच मुठभेड़ और सहयोग की विरोधाभासी प्रक्रियाओं से बनी थी। इनमें से एक पर गांधी-नेहरू की छाप थी। इसका आग्रह था कि राज्य-निर्माण और उसके लिए किए जाने वाले राजनीतिकरण का सिलसिला समाज को धीरे-धीरे भारतीय मर्म से संपन्न आधुनिक समरूपीकरण की ओर ले जाएगा। दूसरी पर सावरकर-मुंजे का साया था। इसका सांस्कृतिक -राजनीतिक प्रॉजेक्ट ‘पुण्य-भू’ और ‘पितृ-भू’ की श्रेणियों के जरिये जातियों में बंटे हिंदू समाज को राजनीतिक -सामाजिक एकता की ग्रिड में बांधने का था। तीसरी पर फुले-आंबेडकर का विचार हावी था और वह सामाजिक प्रश्न को राजनीतिक प्रश्न पर प्राथमिकता देते हुए भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति को तटस्थ शक्ति के रूप में देखती थी। चौथी कल्पना क्रांतिकारी भविष्य में रमी हुई थी और स्वयं को मार्क्सकवाद- लेनिनवाद के वैश्विक आग्रहों से संसाधित करती थी।

गांधी नेहरू कल्पनाशील ने अन्य कल्पनाओं के मुकाबले अधिक लचीलापन और सर्वसमावेशी रुझान दिखाते हुए आजाद भारत की कमान संभालने में कामयाबी हासिल की। दरअसल उनके आगोश में जितनी जगह थी, उसका विन्यास बड़ी चतुराई के साथ किया गया था। वहां पीछे छूट गई बाकी कल्पनाओं के विभिन्न तत्वों को भी जगह मिली हुई थी। इस धारा की खास बात यह थी कि उसमें लोकतंत्र को लगातार सताते रहने वाले बहुसंख्यक वादी आवेग से निपटने की नैसर्गिक चेतना थी। इसका प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक शक्तियों ने सुनिश्चित किया कि यह आवेग किसी भी तरह से ‘दुष्टतापूर्ण’ रूप न ग्रहण कर पाए और लगातार ‘सौम्य’ बना रहे। इस उद्यम के पीछे एक आत्म-स्वीकृति यह थी कि बहुसंख्यक वादी आवेग को खत्म तो नहीं किया जा सकता, लेकिन उसका प्रबंधन अवश्य किया जा सकता है। इसी राजनीतिक प्रबंधन के पहले दौर को विद्वानों ने ‘कांग्रेस सिस्टम’ का नाम दिया है। साठ के दशक के बाद यह प्रबंधन धीरे-धीरे कमजोर होने लगा और इसके क्षय का लाभ उठा कर बाकी तीनों कल्पनाओं ने अपनी दावेदारियां मुखर करनी शुरू कर दीं।

सत्तर के दशक से आज तक गांधी-नेहरू कल्पनाशीलता बाकी तीनों धाराओं की आक्रामकता से भिड़ती रही और पराजित होकर सिकुड़ती चली गई। स्वयं को खत्म होने से बचाने के लिए अस्सी के दशक में इसने बहुसंख्यक वाद को प्रबंधित करने की अपनी पुरानी प्रौद्योगिकी को छोड़ दिया, और इसके भीतर मौजूद बहुसंख्यक वादी झानों को उभारने में जुट गई। नतीजा वही निकला जिसकी अभिव्यक्ति ‘बम्बई का फ्यूहरर’ कहे जाने वाले बाल ठाकरे के शब्दों में हुई। ठाकरे ने इंदिरा गांधी द्वारा हिंदू वोट बैंक बनाने की रणनीति अपनाने पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘अगर बीबी इंदिरा ऐसा कर सकती हैं, तो हम यह काम उनसे भी अच्छी तरह से कर सकते हैं।’ यही वह दौर था जब विभिन्न बहुसंख्यक वादों की खुली होड़ सार्वजनिक जीवन पर छा गई। आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के रूप में सिख बहुसंख्यक वाद, कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुसंख्गयक वाद, उत्तर-पूर्व में ईसाई बहुसंख्यक वाद और उत्तर-मध्य भारत में बहुजन थीसिस के जरिए प्रवर्तित जातियों का बहुसंख्यक वाद बीजेपी-संघ के खुले।

कांग्रेस के छिपे हिंदू बहुसंख्यक वाद के साथ प्रतियोगिता करता नजर आया। इस प्रतियोगिता का संचित परिणाम क्या निकला/ 2004 और 2009 में कांग्रेस की चुनावी जीत के दौरान भी आंकड़ों ने दिखाया कि हिंदुओं के वोटों में बीजेपी की तरफ ध्रुवीकरण का झान है। आज चुनाव में जीत-हार किसी की भी हो, हमारी आधुनिकता का प्रत्यय पूरी तरह से हिंदुत्ववादी हो गया है। संघ परिवार हिंदू समाज की जातिगत संरचना में बिना अधिक छेड़छाड़ किए हुए उसके ऊपर राजनीतिक एकता की ग्रिड डालने में कामयाब हो गया है। हिंदू होने की प्रतिक्रि यामूलक चेतना सार्वजनिक जीवन का स्वभाव बन चुकी है। लोकतंत्र के केंद्र में पुलिस, फौज, अर्धसैनिक बलों और सरकार के आज्ञापालन का विचार स्थापित करने की प्रक्रिया जोर पकड़ रही है। प्रतिरोध, व्यवस्था-विरोध और असहमति के विचार लगभग अवैध घोषित कर दिए गए हैं। एक नया भारत बन रहा है, जिसमें उस भारत की आहट भी नहीं है जिसे गांधी-नेहरू कल्पनाशीलता ने बनाना शुरू किया था।

अभय कुमार दुबे
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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