बदलाव चाहिए तो जवाबदेही जरूरी

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दिल्ली में मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेन्स की नीति को अपनी दूसरी पारी में विस्तार दिया है। नौकरशाी से उम्मीद जताई है और जो भ्रष्टाचार में लिप्त है, उन्हें ना बख्सने का इरादा भी प्रकट किया है। आयकर विभाग, कस्टम एण्ड एक्साइज विभाग से फिलहाल कुछ भ्रष्ट अफसरों को जबरन रिटायर किया गया है। आगे भी इसी तरह किसी भी विभाग में चिन्हित भ्रष्ट अफसरों-कार्मिकों को बाहर का रास्ता दिखाने की योजना है। प्रधानमंत्री की तर्ज पर यूपी में भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भ्रष्ट अफसरों को सेवामुक्त करने का अभियान चला रखा है। यह सच है कि नतीजा चाहिए तो जवाबदेही तय करनी पड़ेगी। हालांकि जवाबदेही की जरूरत पहले से महसूस की जाती रही है, लेकिन उस दिशा में कदम उठासे से सरकारें अब तक झिझकती रही हैं। पर इधर कुछेक कदम उठने से उम्मीद बंधी है। देश की दिशा-दशा सरकारें तय करती है लेकिन उसे जमीन पर उतारने का काम तो नौकरशाही करती है।

यदि नौक रशाही की जवाबदेही तय ना हो तो स्वाभाविक है, तमाम वैकासिक योजनाओं के बावजूद लोगों में मायूसी की मन: स्थिति बनी रहेगी। बीते सात दशकों से यही तो वो कारण रहा है, जिससे बदलाव की रफ्तार सुस्त रही। यह भी रेखांकित किया जाना जरूरी है कि नेतृत्व के स्तर पर भी हमारे कतिपय माननीयों ने सरकारी योजनाओं की निगरानी करने के बजाय किसी और मद में ज्यादा रूचि लेनी शुरू की, जिसका नतीजा सामने है। ढाक के तीन पात। इस दृष्टि से यह सवाल भी है कि जिस तरह नौक रशाही को जवाबदेह बनाने की कोशिश हो रही है, क्या माननीयों को भी जवाबदेह बनाने की दिशा में कोई कारगर पहल होगी? यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इधर एक बार फिर कडक़ रूख का परिचय दिया है। उनके निर्देश पर सचिवालय से लेकर अन्य विभागों तक ऐसे अफसरों-कार्मिकों की सूची बनाने की पहल हुई है जिन पर बरसों से भ्रष्टाचार के मामले विभागों में चल रहे हैं। मुख्यमंत्री भी भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलेरेंस की नीति पर काम कर रहे हैं। इस समय तो प्रदेश में मण्डलवार समीक्षा भी चल रही है। कमजोर, लापरवाह और भ्रष्ट अफसरों पर गाज गिरने से सख्ती का संदेश तो जाता है, लेकिन उसका कितनी देर तक असर रहता है, इस बारे में कुछ कहा नही जा सकता।

ऐसा इसलिए भी कि प्राय: यह सुगबुगाहट रहती है कि अमुक को सियासी संरक्षण प्राप्त है, उसको ज्यादा समय तक अपदस्थ नहीं रखा जा सकता। जहां सियासी पहुंच नहीं होती, वहां मामला कोर्ट पहुंचकर अन्तहीन प्रतीक्षा का हिस्सा बन जाता है। वैसे तो इस सबके बीच विभागीय जांच भी नौकरशाही में कवच की तरह काम आते हैं। शायद इसीलिए सरकारी सेवा नियमावली में यह व्यवस्था है कि 50 पार ऐसे अफसर-कार्मिक जो भ्रष्ट या फिर कामचोर हैं, सेवामुक्त किए जा सकते हैं। वैसे इस प्रावधान के बेजा इस्तेमाल का एक भी मामला अब तक प्रकाश में नहीं है। सही दिशा में इसके इस्तेमाल से एक वातावरण तो बनता है पर दिक्कत यह है कि दशकों से चली आ रही भ्रष्टाचार की परिपाटी सरकारी सेवारतों के बीच स्वभाव-सा बन गई है। देश में कुछ विभाग तो ऐसे हैं, जहां अफसर-कर्मचारी शायद ही अपनी पगार से काम चलाते हों। दफ्तर में जो काम लेकर आते हैं उनसे ही उनकी अच्छी-खासी आमदनी हो जाती है। यह परिदृश्य नया नहीं है, बरसों पुराना है।

पहले काम होने पर यथोचित नजराना होता था, अब उसके बिना आपका साफ-सुथरा काम भी नहीं हो सकता। जब भ्रष्टाचार की जड़ें रोजमर्रा के काम तक पैठी हुई हैं, तब नहीं लगता कि फौरी सगत कार्रवाई से वाकई सूरत बदल जाएगी। इसमें दो राय नहीं कि भ्रष्टाचार की वजह से बहुत-सी योजनाएं परवान नहीं चढ़ पातीं, बल्कि उनकी सुस्त रफ्तार के चलते लागत बढ़ जाती है। समयबद्ध हो योजनाएं तो बदलाव भी दिखे और देश का पैसा भी बचे। यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में सरकारी कर्मचारियों की जवाबदेही तय करने के लिए कानून संसद से पास भी हुआ था, जिसमें कार्य की प्रवृत्ति के हिसाब से उसके निपटारे की अवधि तय क रने पर बल दिया गया था। राज्य सरकारों को इसे लागू क रने का जिम्मा दिया गया था। पर मौजूदा स्थिति अपने-आप में सब कुछ कह देती है। तीन साल पहले जनहित मामलों को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तरफ से यूपी सरकार को फटकार लगाई गई थी।

कोर्ट ने पूछा था, क्या हुआ समयबद्ध निस्तारण प्रावधान का? भ्रष्टाचार का वातावरण तैयार करने में किसी काम को दफ्तर से जल्दी निपटाने की प्रवृत्ति बड़ी भूमिका निभाती हैं। हालांकि इसकी वजह दफ्तर से बार-बार टरकाए जाने में निहित होती है। किसी भी काम को निपटाये जाने का टाइम फ्रेम होता नहीं, इसलिए मजबूरन व्यक्ति अपनी जेब ढीली करता है। उनकी बात और जो पैसे के बल पर कुछ भी करा लेने की उम्मीद में दफ्तर पहुंचते लेकिन निपटारा नहीं होते हैं। भ्रष्टाचार की यह मूल इकाई है, जो पूरी कार्य संस्कृति में फैली हुई है, ऐसे में जवाबदेही की डगर बहुत आसान नहीं है। नीचे से लेकर ऊपर तक जब जवाबदेही का एक मानदण्ड होगा तब जमीनी स्तर पर किसी बड़े बदलाव की शुरू आत हो सकती है। वो आम शख्स हो या खास। वो अदना-सा कर्मचारी हो या बड़ा अफसर। माननीय भी हो तो उनके लिए एक -सा दृष्टिकोण। जवाबदेही पर खरे उतरें तो सराहना और निराश करने पर यथोचित सख्ती।

प्रमोद कुमार सिंह
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं,ये उनके निजी विचार हैं)

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