बंद कपाटों से खड़े हुए कई सवाल

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बद्रीनाथ धाम के इतिहास में ऐसा पहली बार है जब मंदिर के कपाट तय तारीख को नहीं खोले जा सके। पहले मंदिर के कपाट 30 अप्रैल को खुलने थे, मगर अब इसकी तारीख 15 मई कर दी गई है। यह बंदी कोरोना के चलते है, लेकिन संत और स्थानीय पुजारी सरकार के इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं। ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का कहना है कि सदियों से विश्वास चला आ रहा है कि शीतकाल में मंदिर के कपाट बंद होने पर देवतागण भगवान की पूजा करते हैं। अखंड ज्योति इसी का प्रतीक है।

उनका कहना है कि कपाट खुलने की तिथि तय होने के साथ यह भी तय हो जाता है कि उस दिन के बाद से देव वहां पूजा नहीं कर सकेंगे। फिलहाल वहां न तो देव पूजा कर कर पा रहे हैं और न मानव। यह नियम और परंपरा का उल्लंघन है। वैसे तारीख में बदलाव का विरोध करने वालों में बद्रीनाथ के हक-हकूकधारी स्थानीय पुजारी भी हैं। ये लोग सरकार द्वारा नवगठित चारधाम देवस्थानम बोर्ड के प्रबल विरोधी रहे हैं। उनका कहना है कि यात्रा तो इस साल संभव नहीं, पर मंदिर में स्थानीय लोगों की मदद से सुबह-शाम दीया-बाती तो हो ही सकती थी, जैसे कि केदारनाथ और गंगोत्री-यमुनोत्री में हो रही है। इन मंदिरों के कपाट निर्धारित तिथि को खोले जा चुके हैं।

हालांकि राज्य सरकार इनकी तिथियों में भी परिवर्तन चाहती थी, मगर स्थानीय लोगों और पुरोहितों के विरोध के आगे उसकी नहीं चली। बद्रीनाथ के मामले में वह राजपरिवार के प्रभाव का इस्तेमाल कर रावल और डिमरी पुजारियों को मनाने में सफल रही। बताया जा रहा है कि मंदिर के मुख्य पुजारी रावल ईश्वरी प्रसाद नंबूदरी शीतकाल में अपने गृ‌ह राज्य केरल में थे। उत्तराखंड आने पर उन्हें क्वारंटीन में जाना पड़ा है। उनके बगैर कपाट खोले जाने का पारंपरिक अनुष्ठान नहीं हो सकता, क्योंकि बद्रीनाथजी की प्रतिमा को छूने का एकमात्र अधिकार रावलजी को ही है।

दरअसल प्राचीन काल से ही गढ़वाल का राज परिवार बसंत पंचमी के दिन राजपुरोहितों के साथ पंचांग की गणना कर कपाट खोले जाने की तारीख घोषित करता रहा है। फिलहाल राजपरिवार से जुड़ी सारी परंपराएं टिहरी के नरेंद्र नगर महल में नरेश मनुजेंद्र शाह और महारानी माला राजलक्ष्मी की उपस्थिति में होती हैं। राजलक्ष्मी टिहरी से बीजेपी की सांसद भी हैं। कपाट खोले जाने की तिथि घोषित होने के साथ ही महारानी और राजमहल की अविवाहित कन्याएं तिल का तेल निकालकर एक सुसज्जित कलश में रखती हैं जिसे ‘गाडू घड़ी’ कहा जाता है। यह ‘गाडू घड़ी’ यात्रा विभिन्न पड़ावों से

होती हुई जोशीमठ पहुंचकर मुख्य पुजारी रावलजी और विग्रह स्वरूप शंकराचार्य की गद्दी को साथ लेकर पांडुकेश्वर जाती है। शीतकाल में भगवान बद्रीनाथ के विग्रह के रूप में उद्धवजी पांडुकेश्वर में ही रहते हैं। यहां रात्रि विश्राम के बाद उद्धवजी की डोली भी इस यात्रा में शामिल होकर बद्रीनाथ पहुंचती है। अगली सुबह परंपरागत मंत्रोच्चार के बीच मंदिर के कपाट खोले जाते हैं और ‘गाडू घड़ी’ में रखे तेल से बद्रीनाथजी का अभिषेक होता है।

जाहिर है, कोरोना के कारण इस बार इन परंपराओं का पालन संभव नहीं था लेकिन क्या इनके बिना भी कपाट खोले जा सकते थे? स्थानीय धर्माचार्यों और तीर्थ पुरोहितों की मानें तो पूजा पद्धति से जुड़ी परिपाटियां दरकिनार की जा सकती हैं, मगर निर्धारित शुभ मुहूर्त में कपाट खोले जाने से समझौता नहीं हो सकता। उनका कहना है कि राजपरिवार और रावल जैसी परंपराएं प्रभुत्वकारी और व्यवस्थागत अधिक हैं, इन्हें परिस्थितिवश लचीला बनाया जा सकता है।

1939 में बनाए गए बद्रीनाथ मंदिर अधिनियम और 1949 को टिहरी राजशाही के भारतीय संघ में विलय के साथ ही मंदिर के मैनेजमेंट में राजपरिवार के अधिकार सीमित हो गए। हालांकि ‘गाडू घड़ी’ और कपाट खोलने का मुहूर्त निकालने की परंपरा के रूप में राजा के प्रतीकात्मक महत्व को बनाए रखा गया। अब तो श्राइन बोर्ड की तर्ज पर देवस्थानम बोर्ड बन चुका है, सो विशेष परिस्थितियों में ‘बोलांदा बद्रीनाथ’ और ‘अपरिहार्य रावल’ जैसी परंपराओं से मंदिर के करुण कपाटों को मुक्त करने की मांग प्रासंगिक हो सकती है।

व्योमेश चन्द्र जुगरान
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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