फिर राजनीति क्यों नहीं छोड़ देते राहुल ?

0
203

हां हां, राहुल गांधी यदि देश का, कांग्रेस का भला चाहते हैं तो राजनीति छोड़ दें। यदि उनका मकसद मोदी राज-आरएसएस से देश की मुक्ति का है तब भी उसके तकाजे में वे राजनीति छोड़ें और सिर्फ सांसद रहें। उन्हें चाहने वाले, उनके ईर्दगिर्द के सभी सलाहकारों, खुद सोनिया गांधी को समझ लेना चाहिए कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह के मुकाबले कांग्रेस को खड़ा करना राहुल गांधी के बूते में नहीं है और न ही कि सी और कांग्रेसी के बस में है। इसलिए खुद राहुल गांधी को अभी तक का अनुभव याद रखते हुए, सब कुछ विचारते हुए प्रियंका गांधी वाड्रा को अपने, परिवार के व पार्टी के हित में कांग्रेस की कमान सौंपनी चाहिए। यह गंभीर बात है। इसे दो टूक अंदाज में इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि इस सप्ताह राहुल गांधी ने जो पत्र लिखा है वह उनकी इस सीमा को बताता है कि वे और उनका रोडमैप मोदी-शाह के आगे कांग्रेस को खड़ा नहीं कर सकता है।

यदि कांग्रेस के अध्यक्ष रहते हुए वे घर बैठे रहते तब भी वक्त उनका भाग्य चमका सकता था। लेकिन अध्यक्ष पद छोड़ कर बतौर नेता वे न अपनी मंजिल बना सकते हैं और न कांग्रेस की। सचमुच इस सप्ताह राहुल गांधी ने खुद का, कांग्रेस का, विपक्ष का संकट जाहिर किया। अध्यक्ष पद छोड़ते हुए राहुल ने जो पत्र लिखा है उसमें उनकी पीड़ा (नासमझी) इस वाक्य में है कि अनेकों बार उन्होंने अपने आपको अकेला महसूस किया। कांग्रेस संगठन समर्थन करता नहीं लगा। क्या मतलब है इस बात का? इसका अर्थ है कि राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, सोनिया गांधी को ध्यान नहीं है कि नरेंद्र मोदी और इंदिरा गांधी कैसे नेता बने? इंदिरा गांधी भी अपने वक्त में अकेली थी। ‘मोम की गुडिय़ा’मानी जाती थीं। कांग्रेस के पुराने, स्थापित नेता इंदिरा गांधी को कुछ मानते ही नहीं थे। ठीक वहीं स्थिति भाजपा में कभी नरेंद्र मोदी की थी। नरेंद्र मोदी का वाजपेयी-आडवाणी व 2012 से पहले तक भाजपा की केंद्रीय कमान में मतलब नहीं था।

याद है 2012 की गोवा बैठक से पहले कै से आडवाणी-सुषमा- वैंकेया-अंनत कुमार-गडकरी की टोली ने मोदी को रोकने, नेता नहीं मानने वाली क्या राजनीति की और नरेंद्र मोदी ने कैसी जवाबी चालें चलीं? हां, राहुल गांधी की कांग्रेस में अध्यक्षता जितनी आसानी से बनी उतनी इंदिरा गांधी के प्रारंभिक वक्त में कांग्रेस में व नरेंद्र मोदी की 2014 से पहले भाजपा में नहीं बनी थी। लेकिन इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी ने लीडरशीप दिखाई। चालबाजियां की। धूर्तताएं की। पार्टी में बिजली कडक़ाई। इंदिरा गांधी ने पार्टी को तोड़ डाला तो नरेंद्र मोदी ने निर्ममता के साथ आडवाणी-जोशी आदि पुरानों को मार्गदर्शन मंडल में फेंक कर निपटाया। क्या इंदिरा-मोदी का यह इतिहास राहुल, सोनिया, प्रियंका ने पढ़ा-समझा हुआ नहीं है? क्या कांग्रेस में परिवार को कोई बेसिक राजनीति इतिहास नहीं समझाता? तभी सोचें इंदिरा-मोदी की तरह क्या राहुल गांधी पार्टी संगठन पर बिजली क़डक़ाने, लीडरशीप बनाने का काम नहीं कर सकते थे?

क्या वे सोनिया गांधी, डॉ. मनमोहन सिंह, एके एंटनी, अहमद पटेल, गुलाम नबी कि कार्यसमिति को मार्गदर्शक मंडल जैसा कुछ बना कर शंट नहीं कर सक ते थे? अपने नए, नौजवान चेहरों की कार्यसमिति बनाने से राहुल गांधी को किसने रोका था? इंदिरा गांधी ने दो बैलों की कांग्रेस तोड़, मोरारजी- संजीवा रेड्डी-वाईबी चंव्हाण जैसे दिग्गजों को ठिकाने लगा अपनी हाथ वाली कांग्रेस बनाई। नरेंद्र मोदी ने पुराने-स्थापित नेताओं को ठिकाने लगा, भाजपा- संघ को पूरी तरह हाईजैक कर, दिल्ली- नागपुर सब तरफ कब्जा बनाया तो वहीं राहुल गांधी का रोना है कि मैंने अपने आपको अकेला पाया। कांग्रेस संगठन साथ देता नहीं लगा! तब नेता कै से हुए? नेता का मतलब होता है नेतृत्व। नेतृत्व का मतलब है तलवार लिए संकल्प, प्रोजेक्ट पर येन केन प्रकारेण अमल। राहुल गांधी को गिला है कि पार्टी के मैनेजरों, पदाधिकारियों, नेताओं ने उन्हें नहीं सुना तब क्यों नहीं उन पर तलवार चलाई? सोचें, राहुल गांधी पार्टी पर कुंडली मारे बैठे नेताओं-मैनेजरों (एंटनी, अहमद पटेल, शिंदे, हुड्डा, गुलाम नबी आदि) से अपनी और कांग्रेस की मुक्ति नहीं करवा पाए तो क्या वे नरेंद्र मोदी, अमित शाह से देश को मुक्त कराने वाली लीडरशीप दे सकते हैं? पत्र में राहुल गांधी ने आगे की भी गलती बताई।

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here