फिर क्यों अछूत हो रही भाजपा?

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यह हैरान करने वाली बात है, लेकिन पूर्ण बहुमत से लगातार दो लोकसभा चुनाव जीतने और ज्यादातर राज्यों में सरकार बनाने के बावजूद भाजपा ज्यादातर पार्टियों के लिए अछूत होती दिख रही है। 2014 के चुनाव के बाद ऐसा लग रहा था कि पार्टियों में भाजपा के साथ जाने की होड़ मची है पर 2019 आते आते यह प्रक्रिया उलटी हो गई है। अब भाजपा से दूर जाने या भाजपा को रोकने के लिए ज्यादा प्रयास होते दिख रहे हैं।

पार्टियां अपनी आपसी दुश्मनी भूला कर साथ आ रही हैं और यहां तक की भाजपा की दशकों पुरानी सहयोगी पार्टियां उसका साथ छोड़ कर अपने धुर राजनीतिक व वैचारिक विरोधियों के साथ मिल कर उसको रोक रही हैं। महाराष्ट्र में शिव सेना का भाजपा से अलग होकर उसे सरकार बनाने से रोकने के लिए किया जाने वाले प्रयास मामूली नहीं है। अगर इसे सिर्फ एक पार्टी की मुख्यमंत्री पद के लिए जिद मानेंगे तो एक बड़े राजनीतिक बदलाव को समझने में गलती हो जाएगी। यह भाजपा के साथ तीन दशक बिताने के बाद शिव सेना को लगे किसी गहरे जख्म का प्रमाण है, जो उसने यह जिद ठानी कि भाजपा की सरकार नहीं बनने देनी है, चाहे इसके लिए कांग्रेस से ही क्यों न हाथ मिलाना पड़े!

इसके लिए शिव सेना ने अपने बुनियादी वैचारिक आग्रहों से समझौता किया तो कांग्रेस और एनसीपी ने भी शिव सेना के प्रति अपना पूर्वाग्रह छोड़ा। शिव सेना जैसी कट्टरपंथी हिंदुवादी पार्टी के साथ कांग्रेस का जाना भी एक बड़े राजनीतिक बदलाव का संकेत है। इस बदलाव का इशारा करने वाली एकमात्र पार्टी शिव सेना नहीं है। पिछले साल कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस ने इसी तरह विधानसभा में भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद उसे सरकार बनाने से रोका। दशकों तक भाजपा के साथ या गैर-काग्रेस खेमे में रहने वाली टीडीपी ने भी अपने वैचारिक आग्रह छोड़ कर भाजपा विरोध में कांग्रेस से हाथ मिलाया था।

यहीं काम झारखंड में सुदेश महतो की पार्टी आजसू ने किया है। कोई 20 साल पहले अलग झारखंड राज्य बनने के बाद से ही आजसू हर विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ लड़ी है। यह पहली बार है, जब पार्टी अकेले चुनाव लड़ रही है। ऐसा ही फैसला 2015 में नीतीश कुमार ने भी किया था। गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति करने वाले नीतीश ने राजद और कांग्रेस से तालमेल करके भाजपा को रोका था।

सोचें, कर्नाटक की 224 सदस्यों की विधानसभा में 104 विधायक होने के बावजूद भाजपा सरकार बनाने के लिए आठ विधायक नहीं जुटा सकी। इसमें उसे सवा साल लगे। महाराष्ट्र की 288 सदस्यों की विधानसभा में 105 अपने और 14 निर्दलियों के समर्थन से 119 की संख्या होने के बावजूद पार्टी सरकार बनाने के लिए और विधायक नहीं जुटा पा रही है। मध्य प्रदेश की 230 सदस्यों की विधानसभा में 109 विधायक होने के बावजूद भाजपा सरकार बनाने के लिए छह विधायक नहीं जुटा पाई। 2016 में 40 सदस्यों की गोवा विधानसभा में 12 विधायकों के साथ भाजपा ने सरकार बनाई थी और 17 विधायक लेकर कांग्रेस देखती रह गई थी। मणिपुर की 60 सदस्यों की विधानसभा में 21 विधायकों के साथ भाजपा ने सरकार बनाई और 28 विधायक लेकर कांग्रेस बैठी रह गई।

सवाल है कि अब वैसा क्यों नहीं हो रहा है? क्या नरेंद्र मोदी और अमित शाह का हृदय परिवर्तन हो गया है? वे अंगुलिमाल से वाल्मिकी हो गए हैं और सोच लिया है कि अब दलबदल करा करके या राज्यपाल कार्यालय का इस्तेमाल करके सरकार नहीं बनानी है? या उन्होंने 2014 से लेकर 2016-17 तक जो किया है उसने सभी विपक्षी पार्टियों में उनके प्रति नाराजगी का ऐसा भाव पैदा किया है कि सबने किसी हाल में उनको रोकने का संकल्प कर लिया है? चाहे शिव सेना हो या गोवा की एमजीपी और झारखंड की आजसू हो या आंध्र प्रदेश की टीडीपी हो सबने भाजपा के पुराने नेतृत्व के साथ किसी न किसी तरह से तालमेल निभाया था। तभी सवाल है कि अब क्या बदल गया है?

अब सिर्फ शीर्ष पर के दो नेता बदले हैं। सो, जाहिर है उनकी राजनीतिक गतिविधियों या नेताओं के प्रति उनके बरताव ने भाजपा को अपनी सहयोगी पार्टियों के बीच भी अछूत बना दिया है। पहले भी बहुत सारी पार्टियों के लिए भाजपा अछूत थी। पर वह वैचारिक आग्रह था। राजनीतिक सिद्धांतों के कारण कुछ पार्टियों की दूरी थी। अब तो विचारधारा व सिद्धांत की रेखा मिट रही है। इसलिए अब जो दूरी है वह नेतृत्व की वजह से पैदा हुई है। तभी अगर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अपने को नहीं बदलता है तो आने वाले दिनों में और मुश्किल होगी।

अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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