भारतीयों की धार्मिकता के बारे में ‘पीईडब्लू’ (प्यू) का सर्वे चर्चा में है। क्या यह हमारी राजनीति के बारे में भी कुछ सबक देता है? अब तक यह बहस समाजविज्ञान के मानकों के दायरे में ही सिमटी रही कि विभिन्न आस्थाओं वाले भारतीय कितने धर्मपरायण हैं? वे एक-दूसरे को कितना सम्मान देते हैं? पड़ोसियों, राष्ट्रवाद पर उनके विचार क्या हैं? लेकिन क्या यह इसका जवाब देती है कि आप भारत में कोई चुनाव कैसे जीतते हैं? खासतौर से, आप मतदाताओं से क्या कहते हैं कि वे आपके प्रस्ताव पर यकीन कर लेते हैं? नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा को इनके जवाब मालूम हैं।
ये सवाल तो दूसरों की तरफ से हैं, जो उनके चुनावी वायदों पर सिर पटक कर दिमाग पर जोर दे रहे हैं। वे मोदी को उपयुक्त चुनौती तक क्यों नहीं दे पा रहे हैं? अगर आप महत्वाकांक्षी विपक्षी हैं तो आप सवाल पूछ सकते हैं कि उनके वोट क्यों बढ़ रहे हैं? क्या धर्मनिरपेक्षता महत्व नहीं रखती? अब जाति के प्रति लगाव भी बेअसर हो गया है?
भारत के लोग व्यस्त हैं। उन्हें आपको वह संदेश देना होगा जो वे सुनना चाहते हैं। लेकिन आप यह तभी कर सकते हैं जब आप उनसे उस भाषा में बात करें जिसे वे समझते और सम्मान देते हैं। वह भाषा क्या हो? प्यू के सर्वे के आंकड़ों से उभरते विरोधाभासों में कई जवाब मिलते हैं। उन विरोधाभासों पर विचार करें, जो महत्वपूर्ण हैं।
पहला विरोधाभास तो यह है कि लगभग सभी भारतीय बहुत धार्मिक हैं, फिर भी दूसरों की आस्थाओं के प्रति सहनशील हैं। दूसरा यह कि वे धर्म को अपनी पहचान का केंद्रीय स्तंभ मानते हैं, लेकिन यह अपेक्षा न रखें कि यह दूसरों के लिए राष्ट्रवाद को भी परिभाषित करेगा।
तीसरा, वे मानते हैं कि उनकी आस्था का मूल संदेश और उनके राष्ट्रवाद का उत्तरदायित्व यह है कि वे दूसरी आस्थाओं के लोगों का सम्मान करें, इसके बावजूद एक तिहाई भारतीय यह नहीं चाहते कि उनका पड़ोसी दूसरे धर्म का हो। चौथा, वाम दलों को वोट देने वाले 97% मतदाता धर्म में आस्था रखते हैं।
पांचवां, वे दूसरे धर्म के लोगों को पसंद करते हैं और उनमें देशभक्ति की भावना भी उतनी ही है लेकिन उनमें से अधिकतर लोग नहीं चाहते कि उनके बीच का कोई व्यक्ति दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी करे। यह भावना ‘जाति से बाहर’ शादी के मामले में भी काम करती है।
इन जानकारियों से पांच राजनीतिक सूत्र मिलते हैं। एक, भारतीय धार्मिक होने के बावजूद ही नहीं बल्कि इसके कारण भी गहरे धर्मनिरपेक्ष हैं। दूसरा, वे इस झूठ में विश्वास नहीं करते कि दूसरे धर्म के लोग देश के प्रति वफादार नहीं हैं। तीसरा, हम अपने धर्म वाला पड़ोसी इसलिए चाहते हैं कि मामला संस्कृति से लेकर रस्म-रिवाज, पर्व-त्योहार और खानपान का है।
इनसे सामुदायिकता का भाव जागता है। चौथा, मैं वाम दलों को भले वोट करूं लेकिन ईश्वर मुक्त विचारधारा के लिए मेरे पास समय नहीं है। और अंत में, मैं किसी भी धर्म के साथी भारतीय बेशक पसंद करता हूं मगर अंतर-धार्मिक विवाह की बात थोड़ी ज्यादा हो जाएगी। सार यह है कि मैं अपने देश की विविधता का प्रशंसक हूं। लेकिन मुझे विविधता भरी पहचान भी पसंद है। मुझे एकरूपता लाने वाली किसी मशीन में मत घुमाइए। एकता का मतलब एकरूपता नहीं है। जो भी इस पर ज़ोर डालेगा उसे मेरी अति-संवेदनशील प्रतिरोध क्षमता का सामना करना होगा।
मोदी की भाजपा इससे कैसे निबटती है? वह हिंदू-भारतीय पहचान पर जमकर ज़ोर देती है। उसने अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों को पहले ही अपनी गिनती से बाहर कर दिया है। आप जानते हैं कि वे हमें वोट नहीं देंगे, इसलिए प्यारे हिंदू भाइयो आप हमें ज्यादा से ज्यादा वोट देंगे या नहीं, या किसी अल्पसंख्यक को इस वीटो का अधिकार देंगे कि भारत पर कौन राज करेगा? मतदाताओं को यही भाषा समझ में आती है। अगर वे आधे से ज्यादा हिंदू वोट हासिल कर लेते हैं तो उनका काम बन जाता है। पश्चिम बंगाल में यह अनुपात ज्यादा, 60-65% के बराबार था इसलिए वे नाकाम रहे।
लोग मोदी के विरोधियों की इसलिए नहीं सुन रहे क्योंकि उनकी भाषा लोग न तो पसंद करते हैं और न समझते हैं। आप उन्हें धर्मनिरपेक्षता पर भाषण पिलाइए, वे समझेंगे कि आप उन्हें कट्टरपंथी मान रहे हैं। आप आर्थिक मोर्चे पर मोदी के कामकाज की आलोचना कीजिए, जवाब मिलेगा कि लोग केवल रोटी-दाल के लिए नहीं जीते हैं।
भारत कभी इसलिए धर्मनिरपेक्ष नहीं होगा कि लोग अपनी धार्मिक पहचान छोड़ देंगे, बल्कि भारत इसलिए धर्मनिरपेक्ष बना रहेगा क्योंकि वह गहराई से धार्मिक है और इसके लोगों ने शायर इकबाल का यह गीत आत्मसात कर लिया है कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’।
कौन हिंदू मतदाता है, कौन धर्मनिरपेक्ष मतदाता है, यह उलझन ही एक बड़ी वजह है कि मोदी के विरोधी उन्हें मजबूत चुनौती देने में विफल रहे हैं। अगर भाजपा हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करके जीतती है, तो उसके विरोधी मुसलमानों और ‘दूसरों’, खासकर विशेष जाति समूहों को एकजुट करके उसे शिकस्त नहीं दे सकते। उसे विश्वसनीय चुनौती वही दे सकता है जो हिंदुओं और मुसलमानों को एकजुट करेगा, जबकि वे दोनों अपनी-अपनी पहचान बरकरार रखेंगे। प्यू सर्वे के निष्कर्ष इसी राजनीतिक भाषा की सिफ़ारिश करते हैं।
‘मज़हब नहीं सिखाता….’
भारत कभी इसलिए धर्मनिरपेक्ष नहीं होगा कि लोग धार्मिक पहचान छोड़ देंगे, बल्कि भारत इसलिए धर्मनिरपेक्ष बना रहेगा क्योंकि वह गहराई से धार्मिक है और लोगों ने शायर इकबाल का गीत आत्मसात कर लिया है कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’। कौन हिंदू मतदाता है, कौन धर्मनिरपेक्ष, यह उलझन ही एक बड़ी वजह है कि मोदी के विरोधी उन्हें चुनौती देने में विफल रहे हैं।
शेखर गुप्ता
(लेखक एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ हैं ये उनके निजी विचार हैं)