पेशे की पवित्रता ताक पर !

0
104

चंद रोज पहले मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने ‘कानून का राज’ विषय पर एक कार्यक्रम को संबोधित किया। उन्होंने इस दौरान एक बात बड़े मार्के की कही। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि कई बार सोशल मीडिया पर लोगों की भावनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। लेकिन न्यायपालिका को यह ध्यान रखना चाहिए कि इस मंच पर अभिव्यक्त शोर इस बात का सबूत नहीं है कि वह सही है और बहुमत क्या मानता है? ऐसे में यह चर्चा करना आवश्यक है कि कहीं सोशल मीडिया पर प्रस्तुत होने वाले रुझान संस्थानों को तो प्रभावित नहीं करते। इन सबसे न्यायाधीशों को अपनी राय पर कोई असर नहीं पड़ने देना चाहिए। इस नजरिये से चीफ जस्टिस का बयान साहसिक है और समाज के समर्थन की मांग करता है।

बात बिलकुल सही है। बीते एक दशक में हमने देखा है कि सोशल और डिजिटल मीडिया के तमाम अवतारों पर अनेक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। इसके अलावा कुछ सामाजिक और सियासी मसलों पर सच्चाई से परे कहानियां गढ़कर भावनाओं को भड़काने वाले अंदाज में परोसा जाता है। यह सिलसिला अभी भी जारी है। पूर्वाग्रही लोगों की ओर से इतिहास की घटनाओं और चरित्रों के बारे में काल्पनिक घटनाएं और कथाएं रची जाती हैं।

इनका हकीकत से कोई नाता नहीं होता। फिर वे भावुक अंदाज में अपील करते हैं कि इसे देश भर में फैला दो। यह समूचे राष्ट्र,जाति या धर्म के हित में है। इसके बाद मीडिया के मंचों की रगों में ये झूठी, आधारहीन और शरारती सूचनाएं दौड़ने लगती हैं। समाज का एक बड़ा वर्ग उस पर अपनी राय या रुझान बना लेता है। यह घातक है। मुख्य न्यायाधीश ने ठीक ही कहा कि कपोल कल्पित रुझानों पर जजों को क्यों भरोसा करना चाहिए। उनकी जगह रद्दी की टोकरी ही है।

अब सवाल यह है कि सोशल मीडिया की इन सूचनाओं का क्या पत्रकारिता से कोई संबंध है? दुर्भाग्य से यह धारणा बनती जा रही है कि वॉट्सऐप विश्वविद्यालय, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और अन्य प्लेटफॉर्मों पर जो बातें कही या दिखाई जाती हैं, वे सीधे अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ती हैं और यह एक किस्म की पत्रकारिता ही है। पर यह सच नहीं है। कोई कितनी ही व्याख्या कर ले-इन विकृत-भ्रामक, अराजक सूचनाओं की जहरीली फसल को पत्रकारिता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।

एक पानवाले से लेकर किराना व्यापारी तक और मजदूर से लेकर मालिक तक, डॉक्टर से लेकर वकील तक, अफसर से लेकर राजनेता तक लगभग सब इन माध्यमों का उपयोग-दुरुपयोग करते हैं। यह आवश्यक नहीं कि वे कूटनीति, इतिहास और राजनीतिक अतीत के जानकार हों। विडंबना है कि भारतीय शिक्षा पद्धति उन्हें अच्छा प्रोफेशनल तो बनाती है, पर देश के प्रति जिम्मेदार और इतिहास का जानकार नहीं बनाती। इसलिए आसानी से वे भ्रामक सूचनाओं के जाल में उलझ जाते हैं।

इस तरह यह जहर हमारे दिल, देह और दिमाग में दौड़ता रहता है। मुझे यह स्वीकार करने में भी कोई हिचक नहीं कि पत्रकारों का एक पूर्वाग्रही तबका भी इस झांसे में आ जाता है। कस्बाई और आंचलिक पत्रकारिता में ही नहीं, महानगरों में भी तथ्यों की गहन जांच पड़ताल किए बिना कुछ पत्रकार इन नकली तथाकथित समाचारों को विस्तार देने का काम जाने-अनजाने कर जाते हैं। हो सकता है कि इसमें उनका कुछ निजी हित भी हो। मगर निजी हित के नाम पर पेशे की पवित्रता को ताक में नहीं रखा जा सकता मिस्टर मीडिया!

राजेश बादल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here