हमाम में ज्यादातर राजनीतिक दल नंगे नजर आते हैं तो फिर केवल खुद को सही और दूसरों को आला दर्जे का गलत बताने का क्या मतलब? लाख टके का सवाल यही है कि मोदी सरीखे नेता भी क्या राजनीतिक की उसी परिपाटी पर चलेंगे जिसमें अपना काम बनाने से ज्यादा की दूसरों कमी मायने रखती है?
प्रधानमंत्री होकर कोई शख्स अगर ये कहे कि फलां गठजोड़ मिलावटी है और विपक्षियों का लक्ष्य केवल मूझे हटाना व सत्ता पाना है तो समझ में नहीं आता कि वो क्या कहना चाहते है? किस राजनीतिक दल की ये मांशा नहीं होती कि वो सत्ता में आए? क्या भाजपा की ये चाह नहीं थी या नहीं है? किस नेता की ये चाह नहीं होती कि वो सांसद और विधायक भी बने और मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री बने? अगर राजनीतिक दलों का लक्ष्य ही सत्ता है तो फिर उसके लिए इस तरह की बातों का क्या मतलब? तकरीबन पांच साल से प्रधानमंत्री बनने के बाद भी क्या मोदी अगली बार राजपाट के लिए ही दिन-रात एक नहीं कर रहे हैं? वो विरोधियों पर जो प्रहार कर रहे हैं क्या इसके पीछे मंशा क्या जनता के बीच विरोधियों की छवि खराब करना नहीं हैं? माना कि हमाम में ज्यादातर राजनीतिक दल नंगे नजर आते हैं तो फिर केवल खुद को सही और दूसरों को गलत बताने का क्या मतलब? लाख टके का सवाल यही है कि मोदी सरीखे नेता भी क्या राजनीति की उसी परिपाटी पर चलेंगे जिसमें अपना काम बताने से ज्यादा दूसरों की कमी मायने रखती है? अगर मोदी और उनके अंध भक्त ये मानते हैं कि जो काम कांग्रेस के 55 लास में नहीं हुआ वो उनके 55 महीनों में हो गया तो फिर वाणी को इतना तीखा करने की जरूरत क्या है? आखिर अब तक विपक्षी नेता की तरह ही व्यवहास करते प्रधानमंत्री क्यों नजर आते हैं? अगर इनके राज में हर फ्रंट पर तरक्की हुई है तो फिर लोकसभा चुनाव की आहट से इतना घबराने की जरूरत क्या है? अगर सब कुछ बेहतर हुआ है तो फिर संघ मुखिया मोहन भागवत को उन्हें फिर सत्ता में लाने के लिए दिन-रात एक क्यों करना पड़ रहा है?
हकीकत यही है कि संघ मुखिया ही अकेले सबको साधने में जुटे है। राम मंदिर के मसले को पहले उभारा गया। फिर साधु-संतों को अल्टीमेटम के लिए उकसाया गया और जब ये तय हो गया कि सरकार के बस मे इस मसले को इतनी जल्दी निपटाने का बूता नहीं है तो फिर संध मुखिया को ही साधु-संतों को इश बात के लिए मनाना पड़ा कि वो 6 महीनें तक इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दे ताकि भाजपा फिर सत्ता में आ सके? विहिप भी मान गई और बाकी शंकराचार्य भी वही करेंगे जो संघ प्रमुख चाहेंगे। लेकिन ज्यलंत सवाल यही है कि क्या जनता भी वहीं चाहेगी जो संघ मुखिया चाहते हैं और भाजपा व मोदी सरकार चाहती है? फिलहाल कोई भी गठजोड़ बने इसके पहले आसार कम ही नजर आते हैं कि भाजपा के अलावा कोई दल सत्ता में आ सकता है? कारण विपक्षी दल मोदी से छुटकारा तो चाहते हैं लेकिन एक मंच पर ना तो खड़े होने को तैयार है और ना ही हर सीट पर भाजपा के खिलाफ एक होकर लड़ने को राजी है? तो फिर भाजपा को हटाएंगे कैसे? खोट इधर भी है और इधर भी। जनता के सामने दिक्कत यही रहती है कि किसे चुनें? नागनाथ के मुकाबले सांपनाथ पर मोहर लगाना उसकी मजबूरी होती है। कम वोटों के अंतर से राजनीतिक दल सरकार बना लेते है। फिर दो तेरे-चार मेरे करते-करते खिचड़ी सरकारें बन जाती है। देश का कल्याण हो भी तो ऐसे में कैसे? निसंदेह देश को स्थाई सरकार की धर्म संसद के पहले दिन तो सब कुछ ठीक रहा क्योंकि हिन्दुओं के विघटन और धर्मातरण को लेकर प्रस्ताव भी पास किया गया कि हिन्दुओं को जोड़ा सजाये क्योंकि उनके बिखरने से ही कट्टरवादी ताकतें बढ़ रही हैं। बिछड़े लोगों को घर वापसी की भी सभी ने एक सुर में आवाज लगाई। सबरीमाला का भी मुद्दा उठी और संध प्रमुख ने उस पर आश्वस्त भी किया कि वहां सब कुछ ठीक है। धर्म संसद ने यह भी बताया गया कि केरल सरकार भी अत्याचार और अन्याय कर रही है। केवल मलयाली समाज का नहीं पूरे हिन्दू समाज आंदोलन में सहभागी है। हिन्दू समाज एक साथ खड़ा हो गया तो उसे तोड़ा नहीं जा सकता।
लेखक
डीपीएस पंवार