पवार व पासवान से आगे नीतीश कुमार

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रामविलास पासवान या शरद पवार नाहक बदनाम हैं कि वे मौसम विज्ञानी हैं और सत्ता की हवा किस ओर चलने वाली है, यह वे पहले जान जाते हैं। भारतीय राजनीति में असली मौसम विज्ञानी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। कुर्सी तक पहुंचने वाला रास्ता किधर से जाएगा, यह वे सबसे अच्छी तरह से जानते हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि सत्तानिष्ठा की अपनी राजनीति को उन्होंने बहुत कायदे से सिद्धांतनिष्ठा का साफ-सुथरा कुरता पहनाया हुआ था। राजनीतिक विश्लेषकों से लेकर मीडिया के लोग तक सब उनके मुरीद थे। बिहार में राजद और कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव जीतने के बाद गठबंधन तोड़ कर भाजपा के साथ चले जाने पर भी उनके ऊपर बदनामी के छोटे मोटे छींटे ही पड़े थे, जिन्हें आसानी से साफ कर वे आगे बढ़ गए। पर नागरिकता संशोधन कानून पर उनको खुल कर सामने आना पड़ा। वे निर्णायक रूप से इस असलियत के साथ लोगों के सामने आए कि उनकी राजनीति अंततः सत्ता के लिए है, सिद्धांत के लिए नहीं।

नीतीश कुमार की जनता दल यू सबसे पहली पार्टी थी, जिसने कहा था कि वह नागरिकता कानून का विरोध करेगी। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले उसने बहुत साफ स्टैंड लिया था। पर सबसे पहली उन्हीं की पार्टी ने पलटी मारी। उनकी पार्टी ने दोनों सदनों में बिल का समर्थन ही नहीं किया, बल्कि इसका विरोध करने वालों पर हमला भी किया। ध्यान रहे इस बिल पर सरकार को नीतीश जैसे किसी नेता के समर्थन की सबसे ज्यादा जरूरत थी।

और यह महज संयोग नहीं है कि जब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जरूरत हुई है सबसे पहले नीतीश कुमार उनकी मदद के लिए आगे आए। यह भी नीतीश कुमार की ही खासियत थी कि उन्होंने बरसों तक मोदी विरोधी होने की छवि बनाए रखी। ध्यान रहे 2002 के गुजरात दंगों के समय रामविलास पासवान ने वैचारिक स्टैंड लेते हुए अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से इस्तीफा दिया था पर नीतीश कुमार सरकार में बने रहे थे। इसके बावजूद उन्होंने सबको इस भ्रम में डाले रखा कि वे मोदी विरोधी हैं।

प्रधानमंत्री को विपक्षी खेमे के किसी नेता के समर्थन की सबसे पहली और बड़ी जरूरत नोटबंदी के समय पड़ी थी। तब उनकी मदद के लिए नीतीश ही आगे आए थे। वे उस समय राजद और कांग्रेस की मदद से बिहार में मुख्यमंत्री थे। समूचा विपक्ष तब नोटबंदी की भयावह नीति का विरोध कर रहा था तब नीतीश कुमार ने इसका समर्थन किया। उनके समर्थन से ही पूरे देश का परिदृश्य बदला था। उनके समर्थन के बाद ही विपक्ष के आंदोलन की हवा निकल गई थी। अगर तब नीतीश ने मोदी सरकार का समर्थन नहीं किया होता तब विपक्ष के आंदोलन की धार अलग होती है और तब शायद सरकार को अपना फैसला वापस लेना होता। राजद और कांग्रेस के साथ रहते ही नीतीश कुमार ने जीएसटी का भी समर्थन किया था और राष्ट्रपति पद के एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन किया था।

इसी तरह नीतीश ने नागरिकता कानून के मसले पर भी खुल कर सरकार का साथ दिया है। असल में भाजपा का साथ ही अब नीतीश कुमार को सत्ता की गारंटी दे रहा है। इसलिए वे भाजपा के प्रति भाजपा के नेताओं से भी ज्यादा समर्पण दिखा रहे हैं। उन्होंने बिहार में राम जेठमलानी के निधन से खाली हुई राज्यसभा की सीट भी भाजपा के लिए छोड़ दी। अब नागरिकता बिल पर सरकार का साथ दिया है। बदले में भाजपा ने उनको मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना हुआ है। उनको भाजपा अपने से कुछ ज्यादा सीट भी दे सकती है। इसी उम्मीद में उन्होंने अपनी उस छवि को दांव पर लगाया, जो उन्होंने दशकों की राजनीति से बनाई थी।

कुछ विरोधी नेताओं ने और मीडिया के एक हिस्से ने उनको प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताया था। कहा जा रहा था कि वे मोदी के विकल्प हैं। पर उनको पता था कि क्या करना है।

उनको पता था कि छब्बे जी बनने के चक्कर में दूबे जी बन जाने से अच्छा है कि चौबे जी बन कर रहा जाए। मोदी का विकल्प या प्रधानमंत्री पद का दावेदार बन कर मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवाने से बेहतर उन्होंने मोदी के साथ रह कर मुख्यमंत्री बने रहना समझा।

वे यह बात हमेशा जानते-समझते रहे हैं। उनके दिमाग में कभी भी कंफ्यूजन नहीं रहा। तभी वे पिछले करीब 30 साल में थोड़े समय को छोड़ कर हमेशा सत्ता के साथ ही जुड़े रहे हैं। 1990 में बिहार में जब लालू प्रसाद की सरकार बनी तो वे सत्ता के साथ थे और लालू प्रसाद के सबसे करीबी सलाहकार थे। पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत आईके गुजराल ने अपने अनुभव से यह बात अपनी किताब में लिखी है। 1994 में राजद से अलग होकर समता पार्टी के गठन से लेकर 1998 तक चार साल नीतीश कुमार सत्ता से बाहर रहे। उसके बाद से वे लगातार सत्ता में हैं। वे 1998 से 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे और फिर 2005 से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। उनके मुकाबले रामविलास पासवान कम समय सत्ता में रहे हैं। वे मोदी का विरोध करके 2002 में सत्ता से बाहर हुए थे और 2009 में हवा का रुख नहीं भांप सके थे इसलिए कांग्रेस का साथ छोड़ कर लालू प्रसाद के साथ चले गए थे। तब उनको पांच साल सत्ता से बाहर रहना पड़ा था।

बहरहाल, अब यह माना जाना चाहिए कि नीतीश कुमार का असली रूप निर्णायक तौर पर लोगों के सामने आ गया है। वैसे उन्होंने अपने दो नेताओं से नागरिकता बिल के विरोध में बयान दिला कर बचाव का एक रास्ता छोड़ा है। पर अब विपक्ष के लिए उन पर भरोसा करना संभव नहीं दिख रहा है। तभी विपक्षी पार्टियां चाहती हैं कि वे जहां हैं वहां ईमानदारी से टिके रहें। हालांकि अब भी कई लोग हैं, जो कह रहे हैं कि पहले के अनेक बार की तरह वे फिर पलटी मार कर कोई नया करतब दिखा सकते हैं।

अजीत द्विवेदी
लेखक स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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