बरगद को न काटने का निर्णय मात्र एक पेड़ बचने की घटना नहीं है। बल्कि आन्दोलनकारियों एवं पर्यावरणविदों की सांकेतिक जीत है। जिस तरह से विकास के नाम पर हरे-भरे पेड़ों का विनाश करके पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया जा रहा है उस क्रम में यह घटना सुखद व दूरगामी है। किसी भी जनान्दोलन में एक छोटी सी भी जीत उत्साहित करके बड़ी जीत की तरफ उन्मुख करती है। छोटा उत्साह बड़े लक्ष्य के प्राप्ति का साधन बन जाता है। इसका पूर्व परिणाम हम उत्तराखण्ड में देख चुके हैं। उत्तराखण्ड में जमकर पेड़ों को काटा जाता था। जिससे पर्यावरण असंतुलन पैदा हो रहा था। भूस्खलन की घटनायें बढ़ रही थी। लेकिन चिपको आन्दोलन ने पेड़ों की कटान पर विराम लगा दिया। जनान्दोलन खड़ा हुआ कि विकास की दुहाई देकर पेड़ों का सफाया करने वालों के हाथ थम गये। अब उत्तराखण्ड में पर्यावरण व पेड़ दोनों सुरक्षित हैं। महाराष्ट्र के सांगली गांव में नेशनल हाइवे अथारिटी इंडिया ने जनान्दोलन के कारण हाइवे के नशे में बदलाव किया है। यहां हाइवे की सीमा में 400 वर्ष पुराना एक बड़ा बरगद आ रहा था।
यह बरगद 400 मीटर के दायरे में है। पेड़ राजमार्ग की सीमा में आ रहा था। अत: अथारिटी इसे काटने की तैयारी में था। सांगली के सामाजिक कार्यकर्ताओं व स्थानीय निवासियों ने इसे बचाने की मुहिम शुरू की। लोग पेड़ घेर कर खड़े हो गये। पूरे प्रकरण की जानकारी होने पर केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने हस्तक्षेप करते हुए हाइवे के नशे में परिवर्तन करने के निर्देश दिये। अब यह पेड़ सुरक्षित है। अगर ऐसी ही जागरूकता समाज में आ जाय तो हरियाली पर अंधाधुंध कुल्हाड़ी नहीं चलेगी। भ्रष्टाचार व संरक्षण के चलते देश में पेड़ों की अंधाधुंध कटान हो रही है। पहले उप्र में महुआ व देशी आमों की बड़ी-बड़ी बागे होती थी लेकिन अब ये बाग धरातल से नदारत हैं। इसका एकमात्र कारण अवैध कटान है। पुलिस व वनविभाग से सांठगांठ करके अवैध कटान करने वाले माफियाओं ने महुआ व देशी आम के बागों का सफाया कर दिया। ग्रामीण क्षेत्रों में अब चिलबिल, बरगद, इमली, जामुन, गूलर, सेमल आदि के पेड़ इक्का-दुक्का दिखाई देते हैं। फलोत्पादन न होने के कारण ये पेड़ आसानी से कटान माफियाओं के हत्थे चढ़ गये। अवैध आरा मशीने कोठ में खाज का काम कर रही हैं। तमाम अभियानों के बाद भी वन विभाग अवैध आरा मशीनों की गतिविधियों पर पूरी तरह से रोक नहीं लगा पाया है।
शहरों में भी पेड़ों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। सड़कों को चौड़ी करने के नाम पर पेड़ बलि की भेंट चढ़ जाते हैं। ढिढ़ोरा पीटा जाता है कि इसके बदले में कई गुना पेड़ लगाया जायेगा। परन्तु शायद यह वादा मूर्तरूप नहीं लेता है। योंकि ऐसा होता तो आज हरियाली ही हरियाली दिखाई देती। कई साल से वृक्षारोपण करके रिकार्ड बनाया जाता है। पेड़ लगाने का तो रिकार्ड बन जाता है पर शायद इर पेड़ों के नष्ट होने का दूसरा रिकार्ड भी बनता है जिसको या तो छुपा दिया जाता है या इसको लेकर आम जनता में उदासीनता है। इसीलिए सरकारों से इस कवायद का जनता हिसाब नहीं मांगती है। राजधानी लखनऊ की सड़कें नवाबी काल से ही घने वृक्षों की साये में गुलजार रहती थी। इमली के घने पेड़ न केवल पर्यावरण की दृष्टि से फायदेमंद थे बल्कि राहगीरों को गर्मी व बरसात में इसके प्रभाव से बचाते थे। सड़कों को चौड़ी करने के नाम पर इन्हें बेदर्दी से काट दिया गया। आज लोग गर्मी में छाया न मिलने के कारण बेहाल हो जाते हैं। हां ट्री-गार्ड लगाकर पेड़ जरूर रोपे गये हैं। जिनका लोगों को कम फायदा मिलता है विज्ञापनदाता को अधिक फायदा मिलता है। आज जरूरत है पर्यावरण को लेकर समाज जागरूक हो। एक-एक पेड़ को बचाने के लिए आन्दोलन हो तभी पर्यावरण की रक्षा हो पायेगी।