केरल के पालक्काड जिले के मातूर नामक गांव की पंचायत ने एक ऐसा फैसला किया है, जिसका अनुकरण सारे भारत को करना चाहिए। देश की केंद्रीय सरकार और प्रांतीय सरकारों पर भी उसे लागू किया जाना चाहिए। वह फैसला ऐसा है, जिसे हर लोकतांत्रिक देश अपने-अपने यहां भी लागू करे तो उसके सरकारी अफसर, मंत्री और नेता लोग जनता की ज्यादा सेवा कर सकते हैं। वह फैसला यह है कि मातूर की पंचायत ने अपने गांव के लोगों से कहा है कि वे जब सरकारी अधिकारियों को संबोधित करें तो उन्हें आदरपूर्वक भाई या बहन कह दें लेकिन उन्हें ‘सर’ (महोदय) या मेडम (महोदया) न कहें। वे ऐसा क्या करें ? क्या लोग-बाग उनके मातहत हैं या उनके गुलाम हैं, जैसे कि अंग्रेजों के राज में थे ?
भारत की आजादी का यह 75 वां साल है और अभी भी हम गुलामी की भाषा से मुत नहीं हुए हैं। जिन्हें हम ‘सर’ और ‘मेडम’ कहते हैं और जिनकी भौंहे हम पर सदा तनी रहती हैं, उनकी तनखा, उनके भत्ते, उनकी बाकी सारी सुविधाएं कहां से आती हैं ? सब जनता के पैसे से आती है। तो मालिक कौन हुआ ? सरकारी अफसर और मंत्री या जनता के आम लोग ? जो मालिक है, उसे अपने नौकरों के आगे गिड़गिड़ाने की जरुरत यों होनी चाहिए ? खुद नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री की शपथ लेने के बाद कहा था कि वे जनता के प्रधान सेवक हैं। लेकिन असली सवाल यह है कि सात वर्ष के इस कार्यकाल में क्या रत्तीभर भी बदलाव हुआ है ? सरकारी अफसरों और मंत्रियों की दादागिरी ज्यों की त्यों बनी हुई है।
खुद नरेंद्र भाई अपनी कथनी को करनी में बदलने की थोड़ी भी कोशिश करें तो देश की नौकरशाही और नेताशाही पर उसका जबर्दस्त प्रभाव हो सकता है। प्रधानमंत्री लोग जो जनता दरबार लगाया करते थे, वह प्रथा फिर से शुरु क्यों नहीं की जाती ? यह ठीक है कि जनता से जब सीधा संवाद होता है तो हमेशा ही ठकुरसुहाती बातें सुनने को नहीं मिलतीं। कभी-कभी जली-कटी भी सुनने को मिल जाती हैं। भारत में तो यह परंपरा बहुत पुरानी है। पूर्व प्रधानमंत्री अटलजी कहा करते थे कि आज जो लोग ‘महामहिम’ बने फिरते हैं, वे कुर्सी से उतरते ही इतिहास के किस कूड़ेदान में पड़े होते हैं, उनका पता ही नहीं चलता। इसका अर्थ यह नहीं है कि आम जनता नेताशाहों और नौकरशाहों का समान न करे। उनका समान पूरा करे लेकिन उनके नाम के साथ लगे ‘शाह’ शब्द को हटाकर करे।
डा. वेद प्रताप वैदिक
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं ये उनके निजी विचार हैं)